वागड़ के जनजातीय समाज में स्वास्थ्य स्थिति एवं रोग उपचार पद्धतियां

     राजस्थान के दक्षिणी छोर में गुजरात और मध्यप्रदेश की सरहदों व लोक संस्कृति से प्रभावित आदिवासी संस्कृति को समेटे हुये वाग्वर अंचल नैसर्गिक सौन्दर्य से लकदल यह अरावली की छितराई रमणीय उपत्यकाओं से घिरा हुआ है। यह क्षेत्र आध्यात्मिक चिंतन, सिद्ध-संतों, भक्त कवियों, आदिम संस्कृति के साथ ही अपने पुरातत्व, शिल्प, स्थापत्य व समृद्ध इतिहास के लिए प्रदेश भर में ख्यातनाम रहा है।
      दक्षिणी  राजस्थान के वागड़ क्षेत्र में डूंगरपुर और बांसवाड़ा जिले सम्मिलित है। दोनों ही जिले जनजाति उप-योजना (Tribal Sub-Plan) अनुसूचित क्षेत्र घोषित है। आदिवासी जनजातियों की लगभग 80 प्रतिशत आबादी वाला वागड़ का विशाल क्षेत्र 23° - 1 से 24° - 1 उत्तरी  अक्षांस एवं 73°-1 से 74°-24 पूर्वी देशान्तरों के मध्य स्थित है। इसके उत्तर में उदयपुर पूर्व में मध्य प्रदेश तथा दक्षिण-पश्चिम में गुजरात राज्य की सीमाएं लगी हुई है। इसका क्षेत्रफल करीब 4000 वर्गमील है।
स्वास्थ्य स्थिति-   स्वतंत्रता प्राप्ति से ही देश के ग्रामीण, शहरी व आदिवासी क्षेत्रों में स्वास्थ्य की समुचित सुविधाएं उपलब्ध करवाने हेतु अनेक प्रयास किये गए है। विभिन्न कार्यक्रम एवं स्वास्थ्य योजनाएं प्रारम्भ की है। पर बढ़ती जनसंख्या व नगरीकरण के दबाव ने कई रूपों में सार्वजनिक स्वास्थ्य को परोक्ष व अपरोक्ष रूप से प्रभावित किया है। आज देश में अत्यधिक स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार होने के उपरान्त भी बीमारियां बढ़ रही है। देश के लिए स्वास्थ्य योजनाएं बनाने वालों के लिए विभिन्न बीमारियां एक चुनौती बनी हुई है।                  देशवासियों को स्वस्थ रखना केवल इस बात पर निर्भर नहीं करता कि डॉक्टरों एवं अस्पतालों की संख्या में वृद्धि कर दी जाए। जनसंख्या वृद्धि की रोकना नितान्त आवश्यक है। जनसंख्या वृद्धि के फलस्वरूप प्रतिवर्ष हम एक नये हरियाणा को जन्म दे रहे है। जनसंख्या की दृष्टि से भारत विश्व में चीन के बाद दूसरा सबसे बड़ा देश है। यहां जनसंख्या का छठा भाग 6 वर्ष से कम आयु के बच्चों का है। इनमें से अधिकांश                 जनजाति परिवारों के बच्चों का बचपन अंधकार, अभाव, निम्न आर्थिक व सामाजिक परिस्थितियों से गुजरता है। कई बच्चे जन्म से लेकर एक वर्ष की आयु पूरी नहीं कर पाते है।कुपोषण, बाल मृत्युदर, शिशु मृत्यु दर पर नियंत्रण हेतु टीकाकरण, पौलियो उन्मूलन, मातृ एवं शिशु कल्याण, परिवार कल्याण के विभिन्न कार्यक्रम वागड़ में चल रहे है। परन्तु वागड़ के जनजाति परिवारों में स्वास्थ्य स्थितियां अभी भी चिंतनीय है।
"सर्व जनों सुखानि भवन्तु" यह कहावत स्पष्ट करती है। कि प्राचीन - काल से ही स्वास्थ्य को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। स्वास्थ्य मानवीय संसाधनों का महत्वपूर्ण सूचक है। "एक स्वस्थ नागरिक ही स्वस्थ राष्ट्र का निर्माण करता है।" देश की उत्पादन क्षमता व शक्ति का मापदण्ड स्वास्थ्य होता है। केवल रोगों का न होना ही स्वास्थ्य नहीं है। 
      विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार - "स्वास्थ्य वह स्थिति है जिसमें सम्पूर्ण भौतिक मानसिक एवं सामाजिक कुशलता पाई जाती है। केवल बीमारियों की अनुपस्थिति ही स्वास्थ्य नहीं है।" स्वास्थ्य से सम्बन्धित संस्कृत की एक सुप्रसिद्ध उक्ति है कि 'शरीर माध्य खलु धर्म साधनम्' जिसका अर्थ है जीवन में अपने कर्त्तव्यों का पालन करने के लिए उत्तम स्वास्थ्य की प्राथमिक रूप से महत्वपूर्ण आवश्यकता है।
"Sound Mind is Sound Body"
अर्थात्
"स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क होता है।"
        स्वास्थ्य एक अमूल्य साधन है जिस पर सम्पूर्ण समाज व समूह का भविष्य निभर करता है। स्वस्थ जनता ही विकास का आधार है अतः स्वस्थ जनसंख्या आर्थिक विकास का साधन व साध्य है।

स्वास्थ्य को निर्धारित एवं प्रभावित करने वाले कारक-
   स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कई तत्व एवं कारक है। इनमें से कई कारक ऐसे है जो व्यक्ति विशेष की शारीरिक संरचना एवं वातावरण पर निर्भर करते है। ये कारक निम्नलिखित है।
(1) मानव शरीर विज्ञान ।
(2) वातावरण।
(3) जीने के विभिन्न तरीके ।
4) आर्थिक स्थिति।
(5) स्वास्थ्य सेवाएं।
 
वागड़  में स्वास्थ्य स्थिति-
     प्रकृति की गोद में पल्लवित आदिवासी जनजाति संस्कृति का स्वरूप आज भी बना हुआ है। प्रारम्भ में निरन्तर शुद्ध जलवायु एवं कन्दमूल फल के सेवन से इनका जीवन निरोग एवं स्वस्थ बना रहता था। स्वतः प्रतिरोधात्मक शक्ति का विकास होता रहता था। परन्तु वर्तमान में शहरीकरण व जनसंख्या के बढ़ते दबाव के साथ ही औद्योगीकरण ने इसके सम्पूर्ण परिवेश को ही प्रदूषित कर दिया है। आदिवासी जनजाति लोग न केवल सामान्य प्रकृति की वरन् जानलेवा बीमारियों जैसे- तपेदिक, दमा, मलेरिया, कैंसर, एड्स आदि से भी ग्रसित होने लगे हैं जिनका इलाज ये आज भी परम्परागत तरीके से करते हैं।
       वागड़ के आदिवासी जनजाति परिवारों की स्वास्थ्य स्थिति दयनीय अवस्था में है। रोगों के उपचार हेतु परम्परागत व धार्मिक चिकित्सा जिसमें तंत्र-मंत्र, झाड़-फूँक, टोना-टोटका, पूजा-पाठ एवं जड़ी-बूटियों का प्रयोग बहुतायत में प्रचलित है।

स्वास्थ्य एवं बीमारी (रोग) के प्रति रूझान -
     वागड़ क्षेत्र में विभिन्न चिकित्सा संस्थाएं कार्यरत हैं। इसके साथ ही चिकित्सा कर्मी एवं कई नीम हकीम भी विभिन्न बीमारियों का इलाज (उपचार) करते हैं। स्वयं सेवी संस्थाओं द्वारा भी स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराई जा रही है। दक्षिणी राजस्थान के वागड़ अंचल में परम्परागत चिकित्सा पद्धति ही प्रमुख रूप से उपचार के लिए प्रयुक्त की जा रही है। जनजातीय जीवन परिवेश के विभिन्न पक्ष उनकी सांस्कृतिक मान्यताओं, परम्पराओं और प्रथाओं से जुड़े हुए हैं। ये लोग हमेशा प्रकृति के साथ समायोजन करने के लिए संघर्षशील रहे हैं और इसी प्रक्रिया में प्रकृति प्रदत्त उपचार के साधनों की खोज हुई। परम्परागत चिकित्स पद्धति के अन्तर्गत उपयोग में ली जाने वाली जड़ी-बूटियों का अध्ययन आवश्यक है। इन समुदायों में प्रचलित चिकित्सा पद्धति का कोई वैज्ञानिक आधार तो नहीं है परन्तु इनके द्वारा प्रयोग किये जा रहे इन तरीकों के प्रति जनजातिय लोगों की जानकारी एवं दृढ़ विश्वास है।
     भारतीय संस्कृति में चिकित्सा संबंधी कई विविधताएं एवं विश्वास है। पारम्परिक दृष्टि से एक और लोक उपचार है दूसरी और शास्त्रोत मान्यताओं की आयुर्वेद चिकित्सा व देश में आयातीत यूनानी और ऐलोपेथिक प्रणालियां भी प्रचलित है।

वागड़ क्षेत्र में चिकित्सा उपचार की विभिन्न पद्धतियां
 1.परम्परागत चिकित्स पद्धति।
2.परम्परागत वनोषधियों द्वारा।
3.ओझाओं व पारलौकिक शक्तियों द्वारा।
4.आधुनिक चिकित्सा पद्धति।
     वागड़ के जनजातीय लोगों में चिकित्सा उपचार की विभिन्न पद्धतियां प्रचलित है।  वर्तमान में भी 40 प्रतिशत जनजातीय लोग परम्परागत चिकित्सा पद्धति द्वारा उपचार करते है। जड़ी-बूटियों व वनोषशियों द्वारा उपचार करने वाले 15 प्रतिशत है 25 प्रतिशत लोग औझाओं व पारलौकिक शक्तियों द्वारा उपचार करते है। 20 प्रतिशत लोग आधुनिक चिकित्सा पद्धति से उपचार करते है। तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो क्षेत्र में आज भी बहुतायत में परमपरागत चिकित्सा पद्धति प्रचलित है।

1.परम्परागत चिकित्सक एवं चिकित्सा पद्धति-
    मनुष्य के जन्म के विकास के साथ-साथ उस समाज में होने वाले रोगों, व्याधियों, दुर्घटनाओं एवं अस्वस्थता की स्थिति के निवारण हेतु स्वनियोजित चिकित्सा पद्धति परम्परागत चिकित्सा प्रविधियों पर आधारित एक तार्किक एवं युक्ति युक्तवैज्ञानिक विधा के रूप में प्रति स्थापित हुई है। दवाओं की खोज एवं उनका उपयोग, उनके स्वास्थ्य को बनाए रखने और रोगों को नियंत्रित करने के लिए निरन्तर किया जाता रहा है।
 परम्परागत चिकित्सक, वैध, भोपा, स्थानीय चिकित्सक अपने सामुहिक परिवेश का एक सक्रिय अंग होते है।
परम्परागत चिकित्सकों से तात्पर्य - ऐसे लोगों से है, जिन्होंने किसी मान्यता प्राप्त संस्थान से आधुनिक चिकित्सा शिक्षा एवं प्रशिक्षण प्राप्त तो नहीं किया है, परन्तु क्षेत्र विशेष में अपना सम्पूर्ण अथवा कुछ समय लोगों के स्वास्थ्य संरक्षण में लगाते है।
       प्रमुख प्रेत बाधित बीमारियां जैसे भूत लगना, डाकन लगना, नजर लगना, कामण मूंठ आदि।
       क्षेत्र में प्रमुख प्रेत बाधित बीमारियों में भूत लगने की बीमारी 32 प्रतिशत है। डाकन लगने की बीमारी 27 प्रतिशत नजर लगने की बीमारी 21, प्रतिशत और कामण मूंठ की बीमारी 20 प्रतिशत प्रचलित है।
     इन बीमारियों के उपचार का तरीका - देवरे जाना, शमशान पूजन, पूर्वज, पूजा, झाड़-फूंक, तंत्र-मंत्र बलि देना आदि।
प्रेत बाधित बीमारियों के उपचार का तरीका-
     क्षेत्रअध्ययन एवं अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि क्षेत्र में पायी जाने वाली प्रमुख प्रेत बाधित बीमारियों के उपचार का तरीका निम्न है - 50 प्रतिशत लोगों का मानना है कि झाड़-फूंक, तंत्र-मंत्र वे देवरे जाने से प्रेत बाधित बीमारियां ठीक हो जाती है। 10 प्रतिशत लोग शमशान पूजन से प्रेत बाधित रोग दूर करने के तरीके बताते है। 15 प्रतिशत लोगों का मानना है कि पूर्वज पूजा से प्रेत बाधित बीमारियां ठीक हो जाती हैं। 25 प्रतिशत लोगों का मानना है कि बलि देने (मुर्गे या बकरे की) देने पर प्रेत बाधित बीमारियां दूर होती है।        परम्परागत व धार्मिक चिकित्सा हेतु शुल्क में- अनाज, मुर्गा (बलि देना) शराब / पगड़ी साफा नारियल आदि भेंट व अर्पण किये जाते है।

2.परम्परागत वनोषधियों द्वारा चिकित्सा-
     नवीनतम आधुनिक तकनीकों एवं औषधियों व निदान के साधनों के आने के बाद भी वागड़ के आदिवासी जनजाति समाज में इनका प्रयोग नगण्य है तथा ये आज भी प्राचीन परम्पराओं के अनुसार वनोषधियों की सहायता से रोगों का उपचार स्वयं ही अपने स्तर पर करते है। इनमें विशेष परिवर्तन नहीं आया है।
उपचार
(1) चौट पर या सूजन वाले अंग पर एरण्ड के पत्तों को बांधकर रखने से दर्द व सूजन दोनों में आराम मिलता है।
(2) पीपल की जड़ों का सेवन करने से सर्प का जहर कम हो जाता है।
3) महूवे की शराब को छाछ के साथ सेवन करने से निमोनिया ठीक हो जाता है।
(4) कब्ज होने पर त्रिफला (हरड़े, बरडे व आंवला) का सेवन कराया जाता है।
(5) शरीर में दर्द होने पर या बुखार होने पर दशमूल का काढ़ा अर्थात् विभिन्न जड़ी-बूटियों को औटाकर पीलाने से रोग ठीक हो जाता है।
(6) नीम की पत्तियों का सेवन करने से गरमी व त्वचा की बीमारी में आराम मिलता है।

3.धार्मिक उपचार (ओझाओं व पारलौकिक शक्ति)-
      जनजातीय समाज सभ्यता की दृष्टि से अत्यन्त पिछड़ा हुआ है। आर्थिक दृष्टि से कमजोर व शिक्षा की दृष्टि से शून्यवत बना हुआ है तथा आज भी यह 18 वीं सदी में जीवनयापन करता हुआ रूढ़िवादी एवं अंधविश्वासी बना हुआ है। बीमारी की अवस्था में डाक्टरों व वैधों के पास उपचार कराने जाने के बजाय वह ओझाओं झाड़-फूंकार करने वालों के चक्कर लगाने लगता है।
आदिवासी जनजातीय लोग अपने देवी-देवताओं के आ‌ह्वान के लिए 'जाग' देते है। देवी या भैरव वगैरह के सामने डोल पीटकर धूप जलाते है और आह्वान के गीत गाते है। जब देवता प्रकट हो जाए तब बकरे या मुर्ग की बलि दी जाती है। वीर-योगिनी भूत-प्रेत, चूडेल आदि को शराब की धार, घूघरी और बाँकले (Boiled Grains) मूर्गा आदि का भोग दिया जाता है। वंतरि (स्त्री जाति की मृतात्मा) को राख के लड्डू तथा लाल मिर्च का धूप भी दिया जाता है इन सबको उतारा करके चौराहे पर पानी का कुडाला भी निकाला जाता है।
       यंत्र-मंत्र और तन्त्र (तांत्रिक विधियों) का यहा बहु प्रचलन है। भोपे, बडुवे, और साहाल इनके बल पर अपनी आजीविका भी चलाते हैं। अंधश्रद्धा ,अंध भक्ति, और अंध विश्वास के कारण आदिवासी लोग इन बातों को बहुत महत्व देते हैं। बावन - वीरों का रोग यहां बहुत होता है।' मूंठ' मारने की घटनाएं भी अधिक सुनी जाती है। जीवित डाकिनी का दृष्टिपात भी यहां बहुत दिखता है। सामान्य रोग, या बीमारी का कारण भी लोग इन्हीं (बुरी आत्मा) को मानते है और उपचार के लिए भोपे-बड्डूवों की ही शरण लेते है। गातरोड़जी और कल्लाजी की मानता या बाधा रखी जाती है। उनके नाम की 'कलवणी' (मंत्राभिसिंचित जल) पिलाई जाती है और कभी-कभी इन देवताओं का आह्वान भी कराया जाता है। जंतर-मंतर, दौरा-ताबिज और जादू-कामण के अलावा टोना-टोटका का भी जनजातियों में बहुत प्रचलन है।

4.आधुनिक चिकित्सा पद्धति-
      जनजातीय समाज में आधुनिक चिकित्सा पद्धति का प्रचार-प्रसार स्वतंत्रता के पश्चात् से ही प्रारम्भ कर दिये गये थे। परन्तु उनके अपेक्षित परिणाम नहीं निकले। आदिवासी बहुल वागड़ क्षेत्र को अलग से उपयोजना क्षेत्र के रूप में चिन्हित कर अतिरिक्त बजट का भी आवंटन किया गया है फिर भी निम्न करणों से इनको अपेक्षित लाभ नहीं मिल पा रहा है। जैसे-अशिक्षा ग्रामों व कस्बों से दूर बिखरे हुए आबाद होना, गरीबी, मुख्य धारा से कटे रहना, आवंटित बजट का सही दिशा में सदुपयोग नहीं होना, औषधियों व चिकित्सकों का क्षेत्रों से दूर होना आवागमन एवं संदेश वाहन के साधनों की कमी, चिकित्सकों, नर्सों व कम्पाउण्डरों का इन क्षेत्रों में न रूकना आदि।

निष्कर्ष- आदिवासी जनजातीय स्वास्थ्य स्थिति को व्याप्त लोक विश्वास रीतिरिवाज, सांस्कृतिक मान्यताओं, आस्थाओं एवं स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता, स्वीकार्यता और पर्याप्तता के सन्दर्भ में देखा गया।             स्वतंत्रता के पश्चात् स्वास्थ्य स्थितियों में शनैः शनैः परिवर्तन आ रहा है। अध्ययन के दौरान पाया गया कि वागड़ क्षेत्र के इन गांवों में स्वास्थ्य अवस्थाएं मानक स्तर से बहुत कम है इसके लिए स्वास्थ्य कर्मियों की अनुपलब्धता, दवाओं का अभाव, आधुनिक चिकित्सा के प्रति अविश्वास,स्वास्थ्यकर्मियों का असंवेदनशील व्यवहार, सांस्कृतिक बाधाएं एवं स्थानीय धार्मिक एवं परम्परागत चिकित्सकों का प्रभुत्व प्रमुख कारण है।
जनजातियों का सामाजिक-आर्थिक स्तर बहुत निम्न है। क्षेत्र में स्वास्थ्य सेवाएं अपर्याप्त है एवं लोगों को इनकी जानकारी नहीं है। क्षेत्र में पोषण स्थितियां निम्न है एवं संतुलित पौष्टिक आहार का अभाव है, जनजातीय स्वास्थ्य अवधारणा भिन्न है एवं आधुनिक चिकित्सा में इनका कम विश्वास है। आदिवासी क्षेत्रों में स्वास्थ्य एवं चिकित्सा का परम्परागत दृष्टिकोण अभी भी विद्यमान है। निम्न आर्थिक स्थिति के कारण स्वास्थ्य का स्तर निरन्तर गिरता जा रहा है। आवश्यक वस्तुओं के अभाव के कारण तथा आश्रय पोषण या पर्याप्त वस्त्रों के अभाव में कई बीमारियां बढ़ रही है। गरीबी के कारण अपराध करने की प्रवृत्ति को भी बढ़ावा मिल रहा है। इन विकराल समस्याओं से निपटने के लिए सरकार को ठोस कदम उठाने की त्वरित आवश्यकता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची-
1.लवानिया डॉ. एम.एम. (1994) ग्रामीण समाज शास्त्र" रिसर्च पब्लिकेशन जयपुर (राज.) पृ. 299
2.व्यास, हरिश्चन्द (1992) जनसंख्या प्रदूषण और पर्यावरण विद्या विहार नई दिल्ली, पृ. 131
3.चौधरी, बुद्धदेव (1986) 'स्वास्थ्य के सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिदृश्य जनरल ऑफ सामाजिक एवं आर्थिक अध्ययन (1986), पृ. 39
4.बलवीर सिंह (1992) 'चिकित्सा समाजशास्त्र एवं जनजाति समुदाय हिमांशु पब्लिकेशन्स नई दिल्ली, पृ. 12
5.करनपुरिया, रत्नेश (2001-02) दक्षिण राजस्थान में जनजातिय स्वास्थ्य स्थिति' मो.ला.सु.वि.वि. उदयपुर (राज.) पृ. 3,4
6.जोशी, डॉ. एल.डी. बोल. 25 (1963) “वागड़ लोक संस्कृति गुजरात संशोधन मण्डलनुं त्रैमासिक सप्तम् अंक अहमदाबाद, पृ. 328
7.शर्मा, डॉ. सी.एल. (1998) भील समाज कला एवं संस्कृति मालती प्रकाशन विराट नगर, जयपुर (राज.), पृ. 234
8.हरकावत, अनिता (2004) “उदयपुर शहर में उपलब्ध स्वास्थ्य सुविधाओं का अध्ययन” मो. ला.सु.वि.वि. उदयपुर (राज.), पृ. 1, 5, 6, 39
9.नारायणन् प्रो. सुधा (1994) “जन स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण” रिसर्च पब्लिकेशन्स, जयपुर (राज.) पृ. 1, 2, 8, 71, 72
10.सोलंकी, मीता (2003-04) “जन संचार के साधन एवं महिला स्वास्थ्य व्यवहार” मो.ला.सु.वि.वि. उदयपुर (राज.), पृ. 18, 19, 25, 26
11.भार्गव, नरेश कुमार (1990) “आदिवासी समाजों में चिकित्सा व्यवस्था” पृ. 12, 16
12.जैन, हेमेन्द्र कुमार (2003-04) “महिलाओं में स्वास्थ्य समस्याएं एवं उपचार” मो.ला.सु.वि.वि. उदयपुर (राज.), पृ. 13, 14, 27
13.राव, सुश्री मोनिका (2003) “रोग उपचार एवं धार्मिक विश्वास” मो.ला.सु.वि.वि. उदयपुर (राज.), पृ. 8
Govt of Rajasthan:-Ministry of Health & Family Welfare Year book 2008 (P)139



                         डॉ. कांतिलाल निनामा 
                          अतिथि व्याख्याता 
                    गोविन्द गुरु जनजातीय विश्वविद्यालय 
                            बांसवाड़ा राजस्थान 

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

आदिवासी विकास:चिंतन और सरोकार

वागड़ की भील जनजाति-इतिहास के परिप्रेक्ष्य में

भारतीय जनजातियों की जीवनशैली एवं परंपराएं