वागड़ की भील जनजाति-इतिहास के परिप्रेक्ष्य में

     भील जनजाति दक्षिणी राजस्थान के वागड़ क्षेत्र की प्रमुख जनजाति है। वागड़ क्षेत्र में  मीणा, गरासिया और डामोर जनजातियाँ  भी निवास करती है। भील बहुसंख्यक बांसवाड़ा - डूंगरपुर जिले जनजाति उपयोजना क्षेत्र (Tribal Sub-Plan) घोषित है। लगभग 80 प्रतिशत आदिवासी आबादी वाला वागड़ का विशाल क्षेत्र 23°.1 से 24°.1 उत्तरी अक्षांस एवं 73°.1 से 74°.1 पूर्वी देशान्तरों के मध्य स्थित है। इसके उत्तर में उदयपुर, पूर्व में मध्यप्रदेश तथा दक्षिण पश्चिम में गुजरात राज्य की सीमाएं लगी हुई है। इसका क्षेत्रफल करीब 4000 वर्ग  है। 
       इस प्रदेश का वागड़ नाम करीब एक सहस्त्राब्दी से प्रचलित पाया जाता है। पुराने शिलालेखों, ताम्रपत्रों, जीवन चरित्रों तथा अन्य प्रशस्तियों आदि में इसका उल्लेख प्राप्य है। संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषाओं के विद्वानों ने इसे वागट, वग्गड़ वैयागड़ एवं वागवर आदि शब्दों से सम्बोधित किया है। प्राचीन वागड़ क्षेत्र में वर्तमान डूंगरपुर और बांसवाड़ा के राज्यों तथा मेवाड़ राज्य का कुछ दक्षिणी भाग अर्थात् छप्पन नामक प्रदेश का समावेश होता था। 
परिचय -भील राजस्थान की प्रमुख आदिवासी जनजाति है। भील शब्द का प्रयोग तमिळ भाषा में बिल्लुवर' के रूप में हुआ है। जिसका अर्थ है धनुर्धारी। तीर-कमान चलाने में निपुणता प्राप्त होने से सम्भवतः भील नाम रखा गया है। भील अपने को महादेव (शंकर) का वंशज मानते हैं। ये स्वभाव से भोले परन्तु वीर, साहसी एवं निडर होते है। इनमें स्वामी-भक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी होती है।
भील जनजाति की उत्पति -भील जनजाति की उत्पत्ति के बारे में विद्वानों का एक मत नहीं है। भिन्न-भिन्न मत है। इनमें से प्रमुख मत इस प्रकार है-

(क) भील शब्द संस्कृत भाषा के भिल्ल शब्द का तद्भव रूप है जो स्वयं संस्कृत की भिल-भिल्-भेदने धातु से मूलबद्ध है। संस्कृत में भिल्ल शब्द म्लेच्छ देश और जाति दोनों के लिए प्रयुक्त हुआ है।

() भील शब्द का तात्पर्य भेदने की प्रक्रिया से है। महाभारत काल में यह शब्द निषादों के लिए प्रयुक्त किया गया था।

() शुद्र और निषाद कई शताब्दियों तक अभिन्न अंग रहे। भेद केवल इतना रहा कि शुद्र शब्द उन निषादों के लिए काम में आया जिन्होंने आर्यों के वर्ण-संबंधी ढांचे को आशिक रूप से स्वीकार कर लिया और निषाद वे कहलाये जो स्वतंत्र सत्ता बनाये रखे। ऐसे निषादों को पंचम वर्ग के रूप में अंगीकार किया गया।
        आचार्य ओपमनस्य का मत है कि चार वर्ण तथा निषाद मिलाकर जनजातिया है। 

(घ) राबर्ट शेफर ने निषादों को भीलों का पुरखा प्रतिपादित किया है। इनके अनुत्तार भील निषाद माधव (मधु) मुल के है। इन्होंने इस सम्बन्ध में टीकाकार पडीधर की वाजसनेयी सहिता का साक्ष्य दिया है जिसके अंनूसार निषाद तथा भिल्ल शब्द तुल्यार्थ पोतक है।

(च) इस तरह प्रजातियों के गवेषक विद्वानों ने भीलों के उद्‌गम और विकास की कड़ियों को प्रागार्थ युग से आर्य युग तक जोड़ने के यत्न किये है। महाभारत के यादवकुल से सबन्धित पुराण में भीलों के अनेक वर्णन आये है।

प्राचीनता- भील जनजाति इतनी प्राचीन है कि ईसा से 500 वर्ष पूर्व की प्रजाति तालिका में भी उसकी परिगणना हुई है।
(छ) ऐसा भी माना जाता है कि भील शब्द द्रविड भाषा के बील शब्द से निकला हैं जिसका अर्थ है कमान। तीर-कमान के व्यवहार में निपुण होने के कारण यह जाति भील कहलाई।
(ज) कहा जाता है कि मिल्ल शब्द का प्रयोग 600 ई. से ही प्रयोग में आया है। इससे पूर्व यह जनजाति सम्भवतः पुलिन्द तथा वनपुत्र आदि नामों से विख्यात रही है।
    भील शब्द का एक और समानार्थी पालवी (पालव्य) शब्द है जो पाल (भील-बस्ती संस्कृत पल्लि पल्ली) से उद्‌द्भुत है। उल्लेखनीय है कि राजस्थान में भील बस्तियों के लिए आमतौर पर पाल शब्द व्यवहार में आता है। यथा - बारापाल सुरातापाल आदि। भील के पर्यायार्थ में प्राचीन राजस्थानी साहित्य में पालवी शब्द प्रयुक्त हुआ है।"
(८) जिस तरह भील-निषाद माधव मूल के माने जाते है ठीक उसी प्रकार भिलाले भील-राजपूत मूल के है। ये लोग अपनी मूलस्थली चित्तौड़ को मानते है और बताते है कि वे दुष्कालों तथा राजनैतिक उथल-पुथल के कारण मध्यप्रदेश में विलीन मध्यभारत में आकर बस गये थे। भिलाले किन्हीं कारणों से अपने को भीलों से ऊंचा मानते है।
     जैन ग्रन्थों एवं पुराणों में भीलों के लिये भील शब्द के साथ किरात और वनेचर शब्दों का प्रचुर प्रयोग किया गया है। वही अवधी और ब्रज की रचनाओं में इन्हें व्याध. शबर निषाद से भी सम्बोधित किया गया है।
(थ) टालेमी (150 ई.) ने भीलों को फिलाइट के नाम से सम्बोधित किया है।
रसैल और हीरालाल (1915) ने भीलों को कोल या मुण्डा जाति की उस शाखा से माना है जो छोटानागपुर से नर्मदाघाटी के साथ-साथ गुजरात पहुँची और वहां से दक्षिणी राजस्थान में पौल गई।
     भीलों की उत्पत्ति के विषय में महाभारत और समयमा आदि ग्रंथों में भी उल्लेख मिलता है।
 कर्नल टॉड ने अपनी प्रसिद्ध कृति एनल्स एण्ड एंटी क्विटीज ऑफ राजस्थान में इन्हें वनपुत्र कहकर सम्बोधित किया है।
 ओझा, गौरीशंकर हीराचंद के अनुसार यह निश्चित है कि ये आदिवासी अनार्य है किन्तु जिन अनार्य समूह से इनकी उत्पत्ति हुई उसके शारीरिक गठन और एग-रूप के बारे में निश्चित कहना कठिन है।
 रामचंद्र रानाडे के कथन के अनुसार भील हम ही में से है। यदि हम आर्य है तो ये भी आर्य है. अन्यथा दोनों ही अनार्य है। उनकी मुखाकृति उन्हें आर्य ही प्रमाणित वाप्ती है।
अर्सकिन" के अनुसार भील भारतवर्ष के सबसे पुराने निवासियों में से है। जिन्होंने ईसा से कई सौ वर्ष पूर्व उत्तर व उत्तर-पश्चिम की ओर से इस देश में प्रवेश किया था। उनके विचार में आर्यों के आक्रमणों ने ही इन्हें वनों का निवासी बनाया।
कर्नल टॉड की मान्यता है कि भील किसी अन्य स्थान से यहां नहीं आये वे उन्हें वनपुत्र मानते हुए कहते हैं कि जहाँ ये पैदा हुए, वहीं पर अभी तक स्थिर है।

  भील जनजातीय क्षेत्र - भारत में भील जनजाति का तीसरा महत्वपूर्ण स्थान है। दक्षिणी राजस्थान की जनजातियों में प्रथम व राजस्थान में जनजाति जनसंख्या की दृष्टि से दूसरा स्थान है। भारतीय संस्कृति व सभ्यता को समुन्नत करने में आदिवासी भील जनजाति का योगदान सदा स्मरणीय रहेगा। इतिहास साक्षी है कि भीलों ने  विदेशी आक्रमणों के दौरान कंधों से कन्धा मिलाकर राजपूत राजाओं को सहयोग प्रदान किया और शत्रुओं के दांत खट्टे कर दिए।
       भील जनजाति का फैलाव मुख्यतः देश के चार राज्यों में पाया जाता है यथा महाराष्ट्र, गुजरात, मध्यप्रदेश और राजस्थान। गुजरात राज्य में भील पश्चमहल जिले में पाये जाते है। मध्यप्रदेश में भील धार, झाबुआ, खरगौन और रतलाम जिलों में पाये जाते है। राजस्थान में भील भीलवाड़ा, उदयपुर, डूंगरपुर और सिरोही जिलों में निवास करते है।
        जनजातीय लोगों का उल्लेख देश के प्राचीन धार्मिक ग्रन्थों, पुराणों, उपनिषदों और महाकाव्यों में भी मिलता है।  रामायण में जिस एकलव्य  का नाम आता है वह आदिवासी भील था। भीलों का वर्णन रामायण में भी शबरी  के रूप में मिलता है। 
       जनजातीय भीलों का उल्लेख देश के प्राचीन धार्मिक ग्रन्थों, पुराणों, उपनिषदों और महाकाव्यों में भी मिलता है। श्रीमद्भगवद् पुराण अंग के शरीर से उत्पन्न निषाद संतान को ही गिरिजन या वनवासी बताता है। महाभारत में जिस एकलव्य का नाम आता है वह आदिवासी भील था। भीलों का वर्णन रामायण में भी मिलता है। राम को बैर खिलाने वाली शबरी भीलनी ही थी।

 भीली राज्य - आदिकाल में भील इस क्षेत्र के अधिपति थे। आर्यों ने इन्हें जंगलों की ओर खदेड़ा। मध्ययुग में राजपूत हुकूमत को उन्होंने अंगीकार कर लिया। छठी शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक भीलों ने राजपूतों से बराबर टक्कर ली। ग्यारहवीं शताब्दी में प्राचीन मेवाड़ का बहुत सा भाग और मध्य भारत का उत्तर-पश्चिमी हिस्सा भीलों के अधिकार में था। 1190 ई. के आस-पास आबु का राजा जैतसी मूलतः भील था। जब अकबर ने मेवाड़ पर आक्रमण किया और राणा प्रताप को चित्तौड़गढ़ के किले से हाथ धोना पड़ा, तब उनकी सुरक्षा भीलों ने अरावली पहाड़ों में की। महाराणा प्रताप के परिवार को जंगलों में बचाने का श्रेय भीलों को है। वहीं मेवाड़ के शासकों के साथ भी कालान्तर में अच्छे सम्बन्ध बनाये रखे। इस भील जनजाति का इतिहास बड़ा ही गौरवपूर्ण रहा है, मेवाड़ के तत्कालीन शासक वर्ग ने इन्हें राज्य चिन्ह में स्थान प्रदान कर विशिष्ट दर्जा प्रदान किया जो आज भी मेवाड़ राज्य में दृष्टिगत होता है।
      11वीं शताब्दी में सोमदेव कृत " कथा सरित्सागर" में एक भील मुखिया को अपनी सेना सहित विन्ध्याचल के एक शासक का कड़ा मुकाबला करते दिखाया गया है। कथा सरित्सागर में भीलों को "दस्यु" भी कहा गया है। दस्यु शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में भी हुआ है और अगर भील ऋग्वेद के दस्युओं के आधुनिक उत्तराधिकारी है तो यह कहा जा सकता है कि भील आदिकाल के उन व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिन्होनें आर्यों के बढ़ते हुए प्रवाह का प्रतिरोध किया और जिन्हें प्रारम्भिक संस्कृत साहित्य में सभी तरह के अपमानजनक नामों जैसे किरात, पुलिन्द, चाण्डाल व शबर कहकर सम्बोधित किया गया है। पंचतंत्र में फिलीस (Phylli) यानी भीलों के गांवों का उल्लेख है। निषाद शब्द का प्रयोग किसी एक विशिष्ट जनजाति के लिए किया गया है। निषाद उन सभी आदिम जातियों के लिए होता था जो आर्यों के सामाजिक संगठन से बाहर थी।

राजपूत- भील जनजाति संबंध -
     वस्तुतः आदिम जातियों का इतिहास बहुत उतार-चढ़ाव वाला रहा है। कई शताब्दियों तक राजस्थान के कुछ क्षेत्रों पर उनका अधिकार रहा है। जब मैदानों पर से उनका अधिकार छीना गया तो वे धीरे-धीरे पहाड़ी क्षेत्रों में चले गये। वागड़ में भील व अन्य आदिम जातियाँ यहां के मूल निवासी थे व उनको पराजित करने के बाद ही यहाँ राजपूतों ने अपने राज्य स्थापित किये।
     टांड के अनुसार गुहिल ईडर के भीलों के साथ रहते थे। उस समय ईंडर पर मडलीक नामक भील सरदार का राज्य था। कुशलगढ़ क्षेत्र में भी राठौड़ राजपूतों ने कुशला भील को मारकर कुशलगढ़ नामक राज्य बसाया। बांसवाड़ा में वांसिया भील को पराजित किया। इसी प्रकार डूंगरिया भील का शासन डूंगरपुर में था। कोटा राज्य पर भी  कोटिया भील का शासन था। इसी प्रकार पूर्वी राजस्थान में बून्दी को राजपूतों ने मीणों से जीता। 16वीं सदी में महाराणा प्रताप को मुगल शासक अकबर के विरूद्ध हल्दीघाटी युद्ध में भीलों ने पूर्ण सहयोग दिया। इसी कारण से मेवाड़ के राज्य चिन्ह में भीलों को स्थान मिला। कुशलगढ़ के राज्य चिन्ह में भी एक तरफ भील सरदार व दूसरी तरफ राजपूतों का होना लक्षित होता है।
     
सारांश -यद्यपि भील राजस्थान के प्राचीनतम निवासियों में से हैं फिर भी प्राचीन साहित्य, शिलालेखों, सिक्कों या किसी अन्य स्त्रोत से इस जनजाति का कोई लिखित इतिहास प्राप्त नहीं होता। विभिन्न स्थानों पर इनका उल्लेख मात्र ही हुआ है, उसी से हमें भील इतिहास को पुनः निर्मित करना पड़ता है।
       13वीं शताब्दी में गुहिल-भील पारस्परिक सम्बन्धों का संकेत एकलिंगजी मन्दिर के 1282 ई. का एक अभिलेख मिलता है। यह अभिलेख दर्शाता है कि उस समय मेवाड़ क्षेत्र में भील व गुहिल शासकों के बीच मित्रतापूर्ण सम्बन्ध रहे होगें। जहाँ तक डूंगरपुर का प्रश्न है, ख्यातों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जहाँ इस समय डूंगरपुर शहर है वहाँ 14वीं सदी के आरम्भ में डूंगरिया नामक एक प्रभावशाली भील सरदार का अधिकार था। वह थाणा गाँव के शालाशाह ने बड़ौदे रावल वीरसिंह देव की सहायता से धोखे से डूंगरिया भील को मार दिया और उसके राज्य पर अधिकार कर डूंगरपुर राज्य की स्थापना की। भील और राजपूतों के बीच मित्रतापूर्ण सम्बन्धों का उल्लेख राणा कुम्भा के समय के एक अभिलेख में भी मिलता है। इस अभिलेख से यह प्रमाणित होता है कि भील और राजपूतों के बीच मित्रतापूर्ण सम्बन्धों की स्थापना हुई थी।
       इस प्रकार, भील व राजपूतों के बीच के सम्बन्धों का इतिहास मित्रता व शत्रुता की स्थितियाँ दिखाता रहा। कभी-कभी भील व राजपूतों में मित्रतापूर्ण सम्बन्ध रहे तो कभी वे एक-दूसरे के विरूद्ध लड़े।
      इस प्रकार विभिन्न राज्यों के कुछ इतिहासकारों के अध्ययन से स्पष्ट है कि भील भी किसी भी समय एक ही रियासत के राजा नहीं थे। वे दो भागों पर अपने राज्य स्थापित किये थे। रामचन्द्र ने भील व अन्य जातियों का मेवाड़ में निवास बताते हुए लिखा है कि वे समय-समय पर राजपूतों से लड़ते थे। इनकी स्थिति कभी-कभी स्वतंत्र शासकों को थी तो कभी-कभी वे राजपूतों के सहयोगी व सामंतों के रूप में रहते थे।

संदर्भ ग्रन्थ सूची -
1-मेजर के.डी. अर्सकिन, राजपूताना गजेटियर खण्ड द्वितीय-ए, द मेवाड रेजीडेन्सी टेक्स्ट, स्काटिश मिशन इण्डस्ट्रीजक. लिमिटेड अजमेर, 1908 पृ. 228।
2-जेम्स टॉड रचित "ट्रावेल्स इन वेस्टर्न इण्डिया" का हिन्दी अनुवाद- पश्चिमी भारत की यात्रा, अनु. एवं संपा, गोपालनारायण बहुरा, राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक 80, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर 1965 पृ. 38-39।
3-टी.बी. नायक : द भील्स - ए स्टडी, भारतीय आदिम जाति संघ, दिल्ली 1956 पृ. 11
4-वाल्मीकि रामायण, अयोध्या काण्ड 50-35
5-श्यामलदासः वीर विनोद, मेवाड़ का इतिहास, प्रथम भाग पृ. 194-195, प्रथम मुद्रण 1886, पुनर्मुद्रण मोतीलाल बनारसी दास, दिल्ली 1986
6-गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, उदयपुर राज्य का इतिहास, प्रथम खण्ड, राजस्थानी ग्रन्थागार जोधपुर, 1994 पृ. 28
7-गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, "बारहठ राव" बहरतारा का इतिहास, (मौखिक परिक्षण में), 1957 पृ. 10
8-बी.आर. अम्बेडकर, अम्बेडकर, 1937 सामाजिक न्याय और संविधान, भारतीय संविधान में आदिम जाति को अधिकार, मोतीलाल बनारसी दास, दिल्ली 1986
9-गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, "उदयपुर राज्य का इतिहास" द्वितीय खण्ड, राजस्थानी ग्रंथागार जोधपुर, 2003 पृ. 17
10-हरिहरनाथ, राजस्थान "भारतीय जनजातियां सामाजिक अध्ययन, हिन्दी विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर (1970) पृ. 10
11-जनजाति विकास, 1981, 1981 जनजाति विकास, मोतीलाल बनारसी दास, दिल्ली 1986
12-डॉ. अम्बुलाल चौधरी, "भील जनजाति, एक अध्ययन", (राज. 2007), पृ. 18
13-डॉ. अम्बुलाल चौधरी, "भील जनजाति, एक अध्ययन", (राज. 2007), पृ. 18
14-गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, "उदयपुर राज्य का इतिहास" द्वितीय खण्ड, राजस्थानी ग्रंथागार जोधपुर, 2003 पृ. 23
15-गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, "उदयपुर राज्य का इतिहास" द्वितीय खण्ड, राजस्थानी ग्रंथागार जोधपुर, 2003 पृ. 23




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