भील जनजाति में दीपावली का त्यौहार एवं सामाजिक महत्व
त्यौहार एवं उत्सव मानव-समाज के उल्लास के प्रतीक हैं। इनके माध्यम से विह्वल मांनव अपनी दुःख मय जीवन-कथा को सुखी बनाता है और कुछ समय के लिए स्वर्गीय वातावरण में अपने आपको निमग्न कर लेता है।
भील जनजाति के उत्सव उनकी आस्थाओं, विश्वासों एवं परम्पराओं के परिचायक हैं। इनसे हम इनके देवी-देवताओं से अवगत होते हैं और इनकी सामाजिक भावानाओं को सहज ही समझ लेते हैं।
अन्य आदिवासियों की तरह भील भी आस्तिक हैं और श्रद्धावान होने के कारण वे अपने प्रत्येक उत्सव (धार्मिक अथवा सामाजिक) को देवी-देवता की आराधना से प्रारम्भ करते हैं। नवीन अन्न की प्राप्ति पर वे आनन्द से झूम उठते हैं और इसे सर्वप्रथम अपने देवता के चरणों में रखकर अपनी कृतज्ञता का प्रकाशन करते हैं।
परिचय -भारत त्यौहारों का देश है जहाँ प्रत्येक समुदाय अपनी परंपराओं, रीति-रिवाजों और सांस्कृतिक मान्यताओं के अनुसार पर्व मनाता है। इन्हीं विविधताओं के बीच राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र और दक्षिणी राजस्थान की वागड़ भूमि में निवास करने वाली भील जनजाति अपनी विशिष्ट लोकसंस्कृति और उत्सवों के लिए जानी जाती है। भील समाज के त्योहार केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं होते, बल्कि वे उनकी सामाजिक एकता, श्रम-संस्कृति, और प्रकृति के प्रति आस्था के प्रतीक होते हैं।
दीपावली, जो पूरे भारत में प्रकाश और समृद्धि का पर्व मानी जाती है, भील जनजाति में भी अत्यंत उत्साह, लोकगीतों और पारंपरिक रीति-रिवाजों के साथ मनाई जाती है। परंतु इसकी मनाने की शैली, मान्यताएँ और सामाजिक महत्व अपने आप में अनोखे और निराले है।मुख्यधारा की दीपावली से कुछ भिन्न और अधिक सामुदायिक होती हैं।
भील भारत की सबसे प्राचीन और प्रमुख जनजातियों में से एक है। इन्हें भारत के "धनुर्धर" और "जंगल के रक्षक" कहा जाता है। भील जनजाति मुख्यतः राजस्थान के बांसवाड़ा, डूंगरपुर, उदयपुर, प्रतापगढ़, मध्यप्रदेश के झाबुआ, अलीराजपुर, और गुजरात के पंचमहाल क्षेत्रों में निवास करती है। इनका जीवन जंगल, कृषि और पशुपालन पर आधारित है।
भील समाज प्रकृति से गहराई से जुड़ा हुआ है, इसलिए इनके अधिकांश पर्व ऋतु परिवर्तन, कृषि चक्र और लोक देवताओं की पूजा से संबंधित होते हैं। दीपावली भी ऐसा ही पर्व है, जो फसल कटाई और नई ऋतु के स्वागत का प्रतीक है।
धार्मिक विश्वास- प्राचीनकाल से भीलों तथा अन्य जातियों के बीच घनिष्ठ संबंध रहा है। मध्यकाल में इनका सम्पर्क और अधिक बढ़ा, जिससे दोनों जातियों की संस्कृतियों का परस्पर समन्वय हुआ। भील प्राचीन काल में अज्ञानता का जीवन बिताते हुए भी एक-दूसरे का अभिवादन करते वक्त 'राम-राम' शब्द का प्रयोग करते थे। भील जनजाति के लोग हिन्दू देवी-देवताओं जिसमें हनुमान, कल्लाजी, भैरवजी, महादेवजी, ऋषभदेवजी और कालिका माता, लक्ष्मी माता, क्षेत्रपालजी, मातोरी मां, खाकल देव, कसूमोर बावसी, पित्र देव और प्रकृति की पूजा करते है। भील भगवान ऋषभदेव की मूर्ति को "कालाजी बावजी" के नाम से पुकारते हैं। भील लोग सूर्य, चन्द्र तथा नक्षत्रों पर भी विश्वास करते हैं। भील अपने देवी-देवताओं को खुश रखने के लिए मुर्गे तथा बकरे की बलि चढ़ाते थे। जिसमें भैरव, पित्र देव, और कालका माता पर बलि चढ़ाने का रिवाज प्रचलित था।
भील समाज में दीपावली - जहाँ शहरी समाज में दीपावली लक्ष्मी पूजन, धन, व्यापार और ऐश्वर्य से जुड़ी हुई है, वहीं भील समाज में यह पर्व प्रकृति, श्रम और सामूहिकता का प्रतीक है। भील दीपावली को केवल “दीपों का त्योहार" नहीं, बल्कि नए जीवन और नई फसल के उत्सव के रूप में मनाते हैं।
इस दिन वे धरती माता, कृष्ण, गौरा-गौरजी, और अपने कुलदेवताओं की पूजा करते हैं। दीप जलाना अंधकार मिटाने और नयी ऊर्जा के स्वागत का प्रतीक माना जाता है।
दीपावली मनाने के तरीके -भील जनजाति में दीपावली मनाने की परंपरा भील समाज में दीपावली पर्व लगभग पाँच दिनों तक मनाया जाता है। प्रत्येक दिन का अपना विशेष धार्मिक और सामाजिक महत्व होता है।
(1) भील जनजाति में धनतेरस- भील समाज में दीपावली की शुरुआत वसु बारस से होती है। इस दिन गाय-बछड़ों की पूजा की जाती है। माना जाता है कि गाय समृद्धि और जीवन का प्रतीक है। भील परिवार गाय के गोबर से घर लीपते हैं और गोबर से बने दीपक जलाते हैं।
(2) पितृ देव की पूजा -अर्चना एवं झंडे बदलना -
बांसवाड़ा के भील जनजाति समुदाय में पित्र देव मंदिर पर प्रतिवर्ष प्रत्येक गांव के भील जनजाति के लोग इकठ्ठे होकर पटेल/गमेती के नेतृत्व में पित्र देव की पूजा करते है।
सागवा,बांसवाड़ा (राजस्थान ) में दीपावली से पूर्व पूर्वज /पितृ देव की पूजा करते हुए ग्रामवासी
पितृ देव की पूजा नारियल, अगरबती, दिया बत्ती, कुमकुम दारू/शराब/मदिरा की धार/नमन के साथ की जाती हैं और दीपावाली गीत गाए जाते है।
(3) छोटी दीपावली - छोटी दीपावली इस दिन भील स्त्रियाँ स्नान के बाद अपने घरों को सजाती हैं। घर के बाहर मिट्टी के दीये रखे जाते हैं। बच्चे मिट्टी से बने खिलौनों और दीपक बनाकर खेलते हैं। शाम को लोकगीत गाए जाते हैं।
(4) भील जनजाति की मुख्य दीपावली - मुख्य दीपावली की रात भील समाज में अत्यंत उल्लास का समय होता है। इस दिन वे अपने घरों में लक्ष्मी माता और कुलदेवताओं की पूजा करते हैं। घरों और खेतों के कोनों में दीप जलाए जाते हैं ताकि पूरे वातावरण में उजाला फैले। रात में पुरुष और महिलाएँ मिलकर गावर (गौर) और गरबा जैसे लोकनृत्य करते हैं। ढोल, मांदल और थाली की थाप पर लोकगीत गाए जाते हैं। कई जगहों पर "गावर गौरजी" की प्रतिमा बनाकर पूजा की जाती है, जो शिव-पार्वती के रूप माने जाते हैं।
(5) गोवर्धन पूजा-दीपावली के अगले दिन भील समाज में गोवर्धन पूजा का आयोजन होता है। इस दिन वे प्रकृति और भूमि के प्रति आभार व्यक्त करते हैं। खेतों में नयी फसल की पहली भेंट धरती माता को अर्पित की जाती है। घरों में सामूहिक भोज होता है जिसमें पूरा गाँव भाग लेता है।
(6) भाई दूज - अंतिम दिन बहनें अपने भाइयों का तिलक करती हैं, और भाई उनकी रक्षा का वचन देते हैं। इस परंपरा में भी स्नेह और पारिवारिक एकता का भाव स्पष्ट झलकता है। बांसवाड़ा के भील जनजाति में दीपावली के भाई दूज के दिन परिवार के सभी भाई एक दूसरे को गले लगाते है। दीपावली की हार्दिक शुभ कामनाएं देते हैं। और सब मिल बैठ कर मदिरापान का सेवन करते है।
दीपावली का सामाजिक महत्व- भील जनजाति में दीपावली केवल धार्मिक नहीं बल्कि सामाजिक समरसता और एकजुटता का पर्व है। इसका महत्व कई स्तरों पर देखा जा सकता है –
सामाजिक एकता का प्रतीकः दीपावली के दौरान पूरा गाँव एक साथ उत्सव मनाता है। अमीर-गरीब, बूढ़े-बच्चे, सभी एकत्र होकर गीत, नृत्य और भोजन में भाग लेते हैं। यह सामाजिक भाईचारे का अद्भुत उदाहरण है।
स्त्री-पुरुष समानता का संदेशः भील समाज में महिलाएँ दीपावली की तैयारियों में प्रमुख भूमिका निभाती हैं। वे घर सज्जा, पूजा करती हैं, गीत गाती हैं और नृत्य में भाग लेती हैं। इससे समाज में महिला सम्मान और समानता का भाव मजबूत होता है।
सामाजिक संदेश और प्रासंगिकता -भील जनजाति की दीपावली हमें कई महत्वपूर्ण सामाजिक संदेश देती है ।
प्रकृति और मनुष्य का सहअस्तित्व।
सामाजिक एकता और सहयोग की भावना।
महिलाओं की सहभागिता और सम्मान।
श्रम और धरती के प्रति आभार।
आज जब समाज में विभाजन, प्रदूषण और उपभोक्तावाद बढ़ रहा है, तब भीलों की सरल और सामूहिक दीपावली यह सिखाती है कि सच्चा उत्सव वह है जिसमें मन की पवित्रता, परिश्रम का सम्मान और सामाजिक सद्भाव शामिल हो।
सारांश- दीपावली के त्योहार की प्रत्येक भील पुरुष और महिला को लम्बे समय से इन्तजार रहता है। नये-नये कपड़े पहनना, मेहमान जाना, दिवाली मनाना, पढाखे फोडना, सब काम धन्धा छोडकर दो-चार दिन तक मदिरापान में व्यस्त रहना। तब इनका स्वच्छंद प्रमत उन्मुक्त प्रकृत रूप देखने को मिलता है। रात-दिन ढोलक बजती रहती है। राई-बुढिया का नृत्य ,मदिरापान के साथ चलता रहता है। बांस की लकडी की विशेष शहनाई, थाली, और ढोल की थाप हर एक दर्शक को झूमने के लिए मजबूर कर देती है ।प्रत्येक घर जाकर पितृदेवता को दारु की धार, व मुर्गे या बकरे की बलि भी दी जाती है। नारियल वडेर कर दिवाली के दिन अपने पितरों को मदिरा व जल का तर्पण करते है।
भील जनजाति की दीपावली केवल एक धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि जीवन का उत्सव है। यह पर्व श्रम, सादगी, एकता, और प्रकृति के प्रति आदर का प्रतीक है। दीपों की यह उजली रात भील समाज के जीवन मूल्यों—प्रेम, सहयोग, और आस्था—की रोशनी फैलाती है।
आज के भौतिकवादी समाज में भीलों की दीपावली हमें यह सिखाती है कि त्योहार का असली अर्थ दिखावे में नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता और आत्मिक आनंद में निहित है। इस प्रकार, भील जनजाति में दीपावली का पर्व केवल अंधकार मिटाने का नहीं, बल्कि सामाजिक संबंधों को मजबूत करने और सांस्कृतिक पहचान को जीवित रखने का प्रतीक है।
संदर्भ ग्रन्थ सूची -
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डॉ. कांतिलाल निनामा
अतिथि व्याख्याता
गोविन्द गुरु जनजातीय विश्वविद्यालय
बांसवाड़ा, राजस्थान
👌👍
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जवाब देंहटाएंbheel janjati ki depavali manane pr shandar article
जवाब देंहटाएं❤️👍
जवाब देंहटाएंआदिवासी संस्कृति की पहचान पुरखों की देन है आदिवासी की झलख सबसे अलग है 🙏🙏
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा
जवाब देंहटाएंसुपर
जवाब देंहटाएंडॉ मनोज सिंह सर्वोत्तम
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