आदिवासी लोक संस्कृति में भील जनजाति के लोकगीतों एवं लोकनृत्यों का ऐतिहासिक महत्व
भारत एक विविधता से भरा हुआ देश है जहाँ विभिन्न भाषाएँ, संस्कृतियाँ, परंपराएँ और जीवनशैलियाँ देखने को मिलती हैं। इन्हीं विविधताओं के बीच आदिवासी समाज अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान और लोक परंपराओं के कारण अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। आदिवासी संस्कृति की आत्मा उनके लोकगीतों और लोकनृत्यों में बसती है। ये दोनों न केवल मनोरंजन का साधन हैं, बल्कि उनके जीवन दर्शन, सामाजिक एकता, धार्मिक विश्वास और भावनात्मक अभिव्यक्ति का माध्यम भी हैं। आदिवासी लोक संस्कृति में लोकगीतों और लोकनृत्यों का गहरा महत्व है, क्योंकि इनके माध्यम से ही उनकी संस्कृति पीढ़ी दर पीढ़ी जीवित रहती आई है।
आदिवासी लोक संस्कृति मौखिक परंपराओं, गीतों, नृत्यों, कहानियों और अनुष्ठानों पर आधारित होती है। यह संस्कृति लिखित ग्रंथों पर नहीं, बल्कि स्मृति और अभिव्यक्ति पर निर्भर करती है। आदिवासी समाज प्रकृति के अत्यंत निकट रहता है और उसका संपूर्ण जीवन पर्यावरण से जुड़ा होता है। जंगल, नदी, पर्वत, वृक्ष, पशु-पक्षी आदि सभी उनके जीवन और संस्कृति के अभिन्न अंग हैं। इसी संबंध को वे अपने लोकगीतों और लोकनृत्यों के माध्यम से व्यक्त करते हैं।
लोकगीतों का महत्व- आदिवासी लोकगीत उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं। ये गीत विशेष अवसरों, त्योहारों, फसल कटाई, विवाह, जन्म, मृत्यु या धार्मिक अनुष्ठानों के समय गाए जाते हैं। इनके माध्यम से आदिवासी समाज अपनी भावनाएँ, इच्छाएँ, और संघर्षों को अभिव्यक्त करता है।
लोकगीत केवल संगीत का रूप नहीं हैं, बल्कि ये आदिवासी समाज की आत्मा हैं जो उनकी संस्कृति, इतिहास और परंपराओं को जीवित रखते हैं। उदाहरण के लिए—भील, गोंड, सहरिया, हो, संथाल, मुरिया और उरांव जनजातियों के गीत उनके जीवन से जुड़े विविध प्रसंगों को प्रकट करते हैं। इनमें प्रकृति के प्रति प्रेम, देवताओं की स्तुति, सामाजिक रीति-रिवाज और जीवन के उत्सव का चित्रण होता है।
इन गीतों के माध्यम से बुजुर्ग पीढ़ी युवा पीढ़ी को अपने इतिहास, आस्था और सांस्कृतिक मूल्यों की जानकारी देती है। इस प्रकार लोकगीत आदिवासी समाज में सांस्कृतिक शिक्षा का भी माध्यम बन जाता है।
लोकनृत्यों का महत्व- लोकनृत्य आदिवासी जीवन की अभिव्यक्ति का सबसे सुंदर और सजीव रूप हैं। जब आदिवासी समुदाय किसी पर्व, पूजा, विवाह या फसल कटाई का उत्सव मनाता है, तो सामूहिक रूप से लोकनृत्य प्रस्तुत किए जाते हैं। ये नृत्य केवल आनंद का साधन नहीं, बल्कि सामाजिक एकता और सहयोग का प्रतीक हैं।
लोकनृत्यों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनमें स्त्री और पुरुष दोनों की समान भागीदारी होती है। यह समानता आदिवासी समाज की सामाजिक समरसता और लैंगिक संतुलन को दर्शाती है। संथाल जनजाति का "डोमका” नृत्य, भील समाज का "गवरी" नृत्य, गोंड जनजाति का “सेला” नृत्य तथा हो जनजाति का "करमा" नृत्य प्रसिद्ध उदाहरण हैं। इन नृत्यों में ताल, स्वर, और भाव के साथ-साथ सामूहिकता की भावना स्पष्ट दिखाई देती है।
भील जनजाति में लोक गीत - दक्षिणी राजस्थान की भील जनजाति ने अपनी सांस्कृतिक परम्परा, गीत, गाथा, केवते एवं नृत्य आदि धरोहरों को आज भी संजोए हुए रखा है। अनेक धार्मिक आस्थाओं और विश्वासों से प्रतिलक्षित होता है कि जनजातीय सामाजिक जीवन सोलह संस्कारों से बंधा हुआ है। जनजातियों का जीवन सामाजिक सद्भावना से ओतप्रोत है। समाज के नियमों का आदर करना प्रत्येक व्यक्ति अपना कर्तव्य समझता है। छोटे-छोटे गांवों में बसे ये जनजातीय लोग अपने आपको समाज रूपी ग्रह की भित्ती मानते है और इसे सुदृढ बनाने के लिए सतत प्रयत्नशील रहते है।
यद्यपि जनजातीय लोग शिक्षा की दृष्टि से कमजोर है लेकिन इनकी पारस्परिक सहयोग की भावना, परोपकार, स्वार्थ-परागमुखता एवं जनकल्याण की प्रवृत्ति अनुकरणीय है।
जनजातीय गीत-संगीत, नृत्य एवं कला-अनादिकाल से ही मानव की भावनाओं को अभिव्यक्त करने में लोकनृत्य सशक्त माध्यम रहे है और यह सत्य भी है क्योंकि जब मानव के पास सुदृढ भाषा व लिपि का विकास नही हुआ था उस समय भी नृत्य ही मानव के भावों को आसानी से प्रकट करने में सहायक थे।
भले ही वर्तमान में आधुनिकीकरण की दौड़ व पाश्चात्य नृत्यों के फलस्वरुप गैर जनजाति समाज में लोक नृत्य के प्रति ललक शनैः शनैः समाप्त होने लगी है परन्तु सभ्यता के जनक अर्थात जनजाति समाज में आज भी लोक नृत्य के महत्व को देखा जा सकता है। जिसका सशक्त उदाहरण दक्षिणाचल में निवास कर रहा भील जनजाति समुदाय है।
भील जनजाति संगीत - आनंद भारतीय संस्कृति का सार है। यह संस्कृति मरघट, मसानों कब-मंजारों और दर्द आँसुओं की संस्कृति नही हैं। भील मीणा के लोक गीतों की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि इनमें आनन्द की अभिव्यक्ति होती हैं। निराशा शब्द जैसे इनकी डिक्शनरी में है ही नहीं। हरेक खुशी के अवसर पर भील-मीणा नाचते गाते है। विवाह और होली तो गीत गाने के प्रमुख अवसर है। मेले में इनके समूह के समूठ गीत गाते हुए निकलते है। आगे-आगे ढोल पीछे-पीछे भील स्त्री-पुरुष भील मीणा के लोकगीतों में उनकी संस्कृति, रहन-सहन, रीति-रिवाज और उनके जीवन के प्रत्येक पहलु की झलक दिखाई देती है। इनके लोक गीत बड़े भावपूर्ण होते है। श्रृंगार, विरह, वीर, वीभत्स, करुणा, हास्य रस से परिपूर्ण प्राकृतिक सौन्दर्य का चित्रण भी अपने भव्य रुप से निखरा है। कहीं मोर नृत्य करता है, कहीं चिडिया चहचहाती है तो कही वन्य पशु स्वच्छंदता से विचरण करते है।
प्रेम भीलों के जीवन की मुख्य भुमिका है। यह सिर्फ प्रेम ही तो है जो उनके जीवन में निरन्तर रस घोलता है। इनके गीतों में प्रेम की अमर भावना विभिन्न रुपों में उजागर होती है। प्रायः मिलन के गीत अधिक है। निराश प्रेम को इनके गीतों में स्थान नहीं है। प्रेम के कई गीत सोई हुई वासना को जाग्रत करता है तो कई वासना में लिप्त मनुष्य को परिश्रम के लिए प्रेरित करते है।
गीत - 1
रुपया लाजु वे तो लाय, ने तो रेजे झापा बार
टीलही लाजु वे तो लाय पड़लु लाजु वे तो लाव
दारु लाजु वे तो लाव रुपया लाजु वे तो लाव
मोडिला लाजु वे तो लाव, पागडी लाजु ये तो लाय
दालो कटारी लाजु ये तो लाव। ने तो रेजे झापा बार
वर-वधु की भील सुन्दरियां वर को सम्बोधित करके यह गीत गाती है और वर से कहती है यदि तु रूपये लाया है तो अंदर आना वरना बाहर ही रहना। वधु के माथे पर लगाने के लिए बिंदिया लाया है तो आना नही तो भीतर मत आना। इसी तरह वधु के लिए वस्त्र, धुवरी, कटारी आदि वस्तुओं की मांग की जाती है।
गीत - 2
होली बाई आज ने काल, होली बाई जाए रे जाए।
होली बाई आज को वाटो रे, होली बाई वेलु रा ने आबजे रे।।
होली बाई उरा जेवी पासी आवजे रे, होली बाई तोए ते खुब रमाड़ा रै।
होली बाई फाग गाढा ने कल्की करहारे, टोली बाई फाग गाहा ने गैर रमाडे रे।।
होली बाई बारे महिना पासी आवजे रे, होली बाई उए आवी जेवी पासे रे
डोली बाई आज ने काल, डोली बाई जाए रे जाए।।
यह होली गीत है इसमें होली के अवसर पर खेले जाने वाले खेलों का वर्णन है, होली के त्यौहार पर यह गीत सामुहिक रूप से गाया जाता है ।नाचते-नाचते गाते हुए भील कहते है- हे होलिका ! तु वापस जल्दी आना तुझे बहुत खेल खिलाऐंगे। फाग गायेंगे और गुलाल उड़ायेंगे, किलकारी करेंगे, फागनिया पहनेंगे। इस वर्ष जिस प्रसन्नता के साथ तु आई है उसी तरह अगले वर्ष भी आना।
गीत - 3
रई ने केवा बोले रे गांधी हुई आवे रे
धोली ने टोपी रे लाम्बों कुरतो पेरिया
अंगरेजा नु राज, गुलामी नहीं करनी
मली करी ने रेखु एम के तो आवे गांधी
कूड़ा खोदते आये फरी रापीया आले
ई नो डू विसार, राज ले तो आवे
अंग्रेज भगायतों आये, मिटिंग करतों आयें
भाषण देत्तों आये भारत आजाद कीयों।
आदिवासी भील गाँधीजी को देवता मानते है, भीलों में गाँधीजी के रचनात्मक कार्यों पर अनेक गीत लिखे गये है, और समय-समय पर सामूहिक रुप से गाते है। इस गीत में कहा गया है- गाँधीजी सफेद टोपी पहने हुए है, लम्बा कुरता और एक धोती पहने है, अंग्रेजो का राज है हमें गुलामी में नही रहना चाहिये। गाँधीजी का यही उपदेश है- कुएँ और बावडियों खुदवाते है, तालाब बंधवाते है, मुफ्त रुपया देते है, इन सब बातों का मकसद क्या है? गाँधीजी अंग्रेजों को भगाने के लिए सम्मेलन करते है, भाषण देते हैं, गाँधीजी ने देश को आजाद किया है।
गीत - 4
वेवाई थारे रोटी संबालो, अम पड़जीया रोटी नई खाता रे।
वेवाई थारा रोटी संबालो, अम वासीया रोटी नई खाता रे।।
वेवाई थारी दाले संबाला, अम वासी दाल नई खाता रे।
वेवाई थारी लाफसी संबालो, अम चासी लाफसी नई खाता रे।।
वेवाई थारी सूरमा संबालों, अम वासी सूरमा नई खाता रे।
वेवाई थारा सोका संबालों, अम पडजिया सोका नई खाता रे।।
इस गीत में विवाद के बाद वर पक्ष की सुन्दरियां इकट्ठी होती है और यह गीत गाती है, वधू पक्ष के भोजन का मजाक उड़ाते हुए कहती है कि हम यह भोजन करने को तैयार नदी है।
भील जनजाति में नृत्य - भील एक नृत्य और गीतमय जाति है नृत्य, संगीत, सुरा और सुन्दरी इस जाति के रोम-राम में रम गये है। जन्मदिन, नामकरण संस्कार, पूजा-पाठ, विवाह, खेलों में लहलहाती फसल, सुहावना मौसम, सावन, होली दिवाली, पर्व-त्यौहार या कोई भी खुशी का अवसर हो भीलों का मन झूम उठता हैं। वह थिरकने लगता है नाचने कुदने और गाने लगता है। प्रत्येक स्त्री-पुरुष, युवक-युवतियां और बच्चें थिरकने लगते है।
नृत्य के साथ सुर, सुरा और सुन्दरी अति आवश्यक है सुर में बांसुरी और थाली की अंकार जरूरी है, ढोल और नगाड़े की आवाज से चारों दिशाएँ गुजना भी जरुरी है। सुरा यानि महुए की शराब के बिना नृत्य का क्या मजा? और बिना सुन्दरी के साथ नृत्य कैसा? भील प्रायः अपनी-अपनी प्रेमिकाओं या पत्नियों के साथ जी भरकर नाचते है। जब भी उनका मन कहता है नृत्य में मगन हो जाते है बेणेश्वर का मेला या फिर घोटिया अम्बा का मेला वागड के भीलों के लिए नृत्य के विशेष अक्सर होते है मेले के इन मौकों पर भील युवक-युवतियां के झुण्ड के झुण्ड नाचते गाते और बोल बजाते हुए देवी दर्शन के लिए पहुंचते है अपने देवताओं को प्रसन्न करने के लिए नृत्य का विशेष आयोजन करते है और नृत्य द्वारा ही उनकी पूजा करते है।
होली-दिवाली इनका प्रमुख त्योहार है। उस समय उनके जंगलों में स्थित टापरों के आसपास का वातावरण बड़ा खुशनुमा हो जाता है सारा मैदान, जंगल रंग बिरंगे फूलों से आच्छादित हो जाता है। चारो ओर केवड़े की खुशबू महक उठती दे ऐस सुहावने मौसम में भील युवक-युवतियों का अंग प्रत्यंग नाच उठे तो आश्चर्य की क्या बात ?
होली नृत्य में किसी प्रकार का कोई बंधन नही। सभी सीमाएं लांघ दी जाती दे। मन मस्तिष्क और तरह की चितांओं से मुक्त रहता है। दारा के तरपुर नशे में ढोल, बांसूरी आदि के साथ खूब नाचना और जी भरकर एक दुसरे को गालियों देना, खासकर अपने शोषक वर्गों को कोसना दोली गीत की विशेषता है।
होली नृत्य में ये लोग नाचते-गाते कभी एक पंक्ति में खड़े हो जाते है और कभी गोल घेरा बनाते है. किसी भी व्यक्ति को चुनकर महिलाओं के वस्त्र पहनाते है। केवड़ी और गुलाल के रंगों की बौछार से वातावरण इतना उल्लासमय हो जाता है कि वादक स्वयं घुमने लगता है। गैर भी टोली नृत्य दी है। ढोल-मंजीरा और बालर के संगीत के साथ अनेक युवक युवतियों अलग-अलग नृत्य करती है यह नृत्य ताम्र तक चलता रहता है जब तक वे थककर चूर नहीं हो जाते।
दूसरे शब्दों में कहा जाये तो यह अनुचित नहीं होगा की भील समुदाय में लोक नृत्य इस प्रकार रचा बसा है कि स्थानीय क्षेत्रों में निवास कर रहे गैर जनजाति लोग भी इनके नृत्य को देखने मात्र से आनन्दित हो उठते है। भील समाज व लोक नृत्य के सम्बन्ध में यह कहना श्रेष्ठ रहेगा की भीलों में प्रचलित लोक नृत्य इनके जीवन की सच्ची अभिव्यक्ति है।
भीलों में प्रचलित लोक नृत्यों में कृत्रिमता न होकर सरलता व सहजता के तत्य सम्मिलित है। मुख्यतः भीलों में प्रचलित नृत्यों में सुरताल व देशी वाद्य यंत्रों का प्रयोग अधिक होता है एवं एक नर्तक के कदम वारा यंत्रों के क्रियान्वित होने के साथ ही लय में आने लगते है कि शीघ्र ही सारा वातावरण नृत्यमय हो जाता है। वैसे तो प्रायः भीलों में लोक नृत्य का प्रदर्शन वाता यंत्रों तथा ढोलक, नगाड़ा, तम्बुरा, रावण-हत्था, बांकिया, इकतारा एवं तुरई के साथ किया जाता है फिर भी उदयपुर डुंगरपुर एवं बांसवाड़ा में किये गये सर्वेक्षण में ज्ञात होता है कि भीलों द्वारा बाता यंत्रों के अभाव में ताली, चुटकी या मुख से विचित्र ध्वनियों निकाल कर भी लोक नृत्य किये जाते हैं। भील समाज में लोक नृत्यों को रचना एवं अभिनय भी कहा जाता है। स्त्री तथा पुरुष दोनों सम्मिलित होकर एवं अलग-अलग टोली पनाकर किये जाते है। जो गोलाकार अर्द्ध त्रिभुजाकार एवं कतार की पंक्ति में अभिनीत करते हैं। प्रायः जब नृत्यों के साथ कथानक को भी जोड़ दिया जाता है तो यह लोक नृत्यों की नाटिका का रुप धारण कर लेता है जो कि मीलों में अत्यधिक लोकप्रिय है।
मुख्यतः वर्तमान परिवेश में दक्षिण राजस्थान के भील समाज में गवरी नृत्य, गैर नृत्य, विवाह नृत्य, ढोली नृत्य, नेजा नृत्य, ठेगना नृत्य तथा शिकार एवं भैरव नृत्य प्रचलित है।
गवरी लोक नृत्य - गवरी लोक नृत्य भील जनजाति का सर्वाधिक लोकप्रिय एवं सामाजिक नृत्य है क्योंकि न सिर्फ इसका उद्देश्य मनोरंजन करना है अपितु गवरी नृत्य में पारिवारिक, धार्मिक तथा भोगोलिक पर्यावरण को प्रदर्शित करने वाले अभिनय किये जाते है। शायद यही वजह है कि गवरी नृत्य नाटिका भील समाज का पर्याय बन चुका है जिसमें सम्पूर्ण भील संस्कृति की अभिव्यक्ति होती है।
मुख्यतः गवरी लोक नृत्य नाटिका का मूलाधार, ऐतिहासिक एवं धार्मिक आस्था है जो भाद्रपद कृष्णपक्ष की एकादशी से प्रारम्भ होकर निरन्तर सवा महिने तक चलता है। धार्मिक दृष्टिकोण से इसका आधार शिव-पार्वती व भस्मासुर संग्राम है।
भील जनजाति में यह लोक कथा प्रचलित है कि शंकर भगवान ने भस्मासुर नामक राक्षस को प्रसन्न होकर कड़ा दिया जिसकी प्रमुख विशेषता यह थी कि इस कड़े को जिस किसी के सिर पर घुमा दिया जाये यह व्यक्ति भस्म हो जाता है। भस्मासुर इसका दुरुपयोग कर भगवान शंकर को ही भस्म कर पार्वती को प्राप्त करना चाहता था जिससे भगवान शंकर भी परेशान हो गये। अन्त में भगवान विष्णु ने अपनी कुटनीति द्वारा मोहनी रुप धारण कर भस्मासुर को अपनी प्रेम पाश में फंसाकर उसे ऐसा नाच नचाया की भस्मासुर ने अपने हाथ में पहने कड़े को डी अपने सिर पर घुमा दिया और वह वही भस्म हो गया।
इसी घटना की स्मृति में यह लोक नृत्य प्रत्येक वर्ष आयोजित किया जाता है। भीलों में यह विश्वास है कि ऐसे नृत्य को करने से शंकर-पार्वती प्रसन्न होंगे तथा सम्पूर्ण समाज में प्रसन्नता की लहर फैलायेंगे।
गवरी नृत्य नाटिका के अन्तर्गत खुशहाली की कामना को लेते हुए गाँव-गाँव में गवरी ले जायी जाती है। प्रत्येक वर्ष में गमेती मुखिया के आग्रह पर समान गाँव में स्थापित होती है। प्रारम्भ में गवरी आयोजन स्थल के निश्चित होने के पश्चात् जब गवरी दल गाँव में पहुँचता है तो आदिवासी भील बालाऐं गवरी दल का नारियल, चावल, कुमकुम व गुलाल तथा खारा सामग्री से स्वागत करती है एवं गवरी नृत्य की सफलता देतु आवश्यक वस्तुओं यथा आभूषण वस्त्र, बांस एवं अन्य वस्तुओं की व्यवस्था की जाती है। भीलों में आयोजित गवरी नृत्य में चार प्रकार के पात्र होते है जिन्हें देव पात्र, दानव पात्र, पशु पात्र तथा मानव पात्र के आधार पर विभाजित किया जा सकता है। जब कि गवरी नृत्य का मुख्य पात्र राई व बुढ़िया होते है। जो क्रमशः शंकर व पार्वती के रूप में आते है। सामान्यतः सारा गवरी नृत्य इन्दीं दो पात्रों के इर्द-गिर्द घुमता है। साथ ही गवरी नृत्य में कुटकुटिया एवं भोपा भी प्रमुख पात्र है।
गवरी लोक नृत्य की प्रमुख विशेषता यह है कि यह नृत्य दिखावा मात्र ही नहीं होता है अपितु इस नृत्य के आयोजन दिवसों में इसके प्रमुख पात्र राई बुदिया, कुटकुटिया एवं भोपा आदि संयम का पालन करते हुए व्रत रखते है एवं इस अवधि के दौरान मांस, मदिरा का सेवन न करके भजन-पूजन का कार्य करते हैं।भीलों द्वारा आयोजित गवरी नृत्य अत्यन्त मनमोहक एवं आकर्षक होता है जिसमें 35-40 से 150-200 नर्तक टोली त्रिशुल को घेर कर, मांदल, थाली, आंझ, बांसुरी आदि की ध्वनि पर नृत्य करते है जो न सिर्फ लय, ताल एवं स्वरों का सुन्दर समन्वय प्रस्तुत करते है अपितु भीलों की युद्ध प्रियता, शिकार, प्रेम तथा विरट की अभिव्यक्ति का भी सशक्त माध्यम है।
विवाह नृत्य - भील जनजाति में विवाह से सम्बन्धित कई प्रकार के नृत्य प्रचलित है जिसमें रमणी नृत्य प्रमुख है। इस नृत्य के अन्तर्गत विवाह के मण्डप के पास नयें कपड़ों व गहनों से सुसज्जित स्त्रियां एक दुसरे को हाथों से पकड़कर मांदक के साथ आगे पीछे पैर बढ़ाती हुई नृत्य करती है, दूसरी तरफ पुरुषों का समूह नये कपड़ों सुसज्जित होकर नृत्य करता है।
स्त्रियां गीत गाती हुई एवं ताली बजाती हुई नाचती है एवं युवक गीतों की पवित को दोहराता हुआ उनको प्रत्युतर देता है। यह नृत्य विवाह के समय देर रात तक चलता रहता है।
ठेगना नृत्य - यह नृत्य खलिहान, पाल एवं घर के समीप आयोजित किया जाता है। यह भी विवाह के उत्सव पर रात्री को किया जाता है। इसमें स्त्री-पुरुष दोनों नृत्य करते है। दोनों समूट बनाकर एक टाथ को कंधे पर रखकर तथा एक दुसरे को हिलाते हुए नृत्य करते है।
एवं दूसरा दल उसका उत्तर नृत्य करते हुए देता है क्रमवार दोनों तरफ से यह सिलसिला रात भर चलता रहता है। यह अत्यन्त रोचक होता है जो पक्ष प्रश्नों का उत्तर नहीं दे पाता है वह ठारा दुआ माना जाता है। लोग बिना उठे व थके रात भर बड़ी तन्मयता से इसका आनन्द लेते है। जिस लड़की के हाथ में तीर होता है उसे दुल्हन माना जाता है तथा दुल्हा का हाथ तलवार से सुसज्जित होता है। हाथ में डोर भी दुल्हा दुल्हन बांधती एवं दुल्हा पगडी एवं रुपयों की माला पहनता है।
इसमें खजूर की डाली पर नारियल या रुपया सफेद या लाल कपड़े में बांधकर महिलाऐ वृक्ष के चारों तरफ खड़ी हो जाती है, दूसरी तरफ पुरुष नर्तक खड़े हो जाते है तथा इनके हाथ में छडियों होती है। पुरुष पात्र इस नेजा को लेने के लिए नृत्य करते हैं। जिसे महिला रोकती है, छः बार इसी प्रकार की प्रक्रिया अपनाई जाती है तथा सातवीं बार महिलाएं पीछे हट जाती है इस प्रकार यट प्रतिस्पर्धात्मक नृत्य है जो साटस व बहादुरी का परिचायक माना जाता है। यह अत्यन्त आकर्षित व मनोहारी छवि प्रस्तुत करता है।
नेजा नृत्य - यह नृत्य होली के पश्चात किया जाता है। यह सामुहिक नृत्य है जिसमें स्त्री-पुरुष दोनों ही भाग लेते है। इस नृत्य में भील स्त्री-पुरुष अर्द्धवृत्ताकार स्थिति में होते है एवं एक दूसरे का हाथ पकड़े हुए कमर को झुकाते हुए नृत्य करते है। यह सामान्यतया सभी भीलों में किया जाता है।
भगोरिया नृत्य - होली के मद मस्त वातावरण में भील जनजाति कि महिलाएं एवं नवयुवक खुशी में झुम उठते है रंग-बिरंगे कपडे पहनकर गुलाल व रंग की पिचकारियों छोड़ते हुए हर्षोल्लास में डूबकर सारे दिन-रात बिना थकान का अनुभय किये हुए नाचते है। यह नृत्य विशेषकर मध्यप्रदेश के भीलों द्वारा किया जाता है।
गैर नृत्य - यह नृत्य भी होली के अवसर पर किया जाता है जिसमें केवल पुरुष ही भाग लेते है। उनके दाहिने हाथ में बड़ा डंडियों होता है और बॉयें हाथ में बाण या तलवार होती है। यह नृत्य शेखावटी और बीकानेर के गीदड़ तथा मारवाड डांडिया नृत्य के बहुत कुछ समान है। इस नृत्य में नृत्याकार बाँयें से दाये नाचते है। इसमें कोई गीत नहीं गाया जाता है सिफ ध्वानया डा निकाला जाता है। व अपनी तलवारों को भी कलात्मक ढंग से घुमाते है।
भैरव नृत्य - भील जनजाति में भैरव नृत्य इष्ट देव के सामने धार्मिक अवसरों पर क्रिया जाता है। इसमें स्त्री-पुरुष दोनों ही भाग लेते है एवं ताल के लिए मांदल और थाली का प्रयोग होता है। नर्तक वृत्ताकार में खड़े हो जाते है जिसमें एक और अर्द्धवृत्त में पुरुष और दूसरी और स्त्रियाँ पडले पुरुष नृत्य करते समय गीत की पवित गाते है और स्त्रियाँ उनका अनुसरण करती है।
भैख नृत्य गीत्त का उदाहरण-
मैंरु मांदल ने दुमको बाजे थाने पूजा ।
भैंरु झालर ना झुमको बाजे थाने पूजा ।।
शिकार नृत्य - इस नृत्य में भील जन शिकार करने के सारे हाव भाव करतब नृत्य अभिनय कर करताल, ढाल, मंजीरे व घुँघरू की मधुर आवाज से अत्यन्त प्रभावी ढंग से प्रदर्शित करते है तथा उनका यह नृत्य अभिनय, शिकार व निशानेबाजी की वास्तविक तस्वीर को जीवंत रूप में प्रस्तुत करता है।
शिकार नृत्य में भील अपनी धनुर्विता के विचित्र कौशल को अभिनय के माध्यम से प्रकट करता है वह ध्वनि से शिकार की गतिविधि का गान कराता है। धनुष पर रखे हुए तीर को कभी वह ऊपर उठाता है तो कभी-कभी नीचे ले जाता है कभी वट अपटता है तो कभी वह कुदता है कभी वह चित्कार करता है। नर्तक इस प्रकार के दृश्य को नृत्य अभिनय करता है एवं साकार रुप देता है कई युवक काले कम्बल या लाल नीले कपडे ओढ़कर नृत्य करते है।
युद्ध नृत्य प्राचीन काल में भीलों को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए हींसक पशुओं से संघर्ष करना पड़ता था। साथ ही अन्य जातियों के हमलों का सामना करने के लिए युद्ध करना पड़ता है। इसके लिए वे हमेशा ही सतर्क व तैयार रहते है। युद्ध का अभ्यास एवं शस्त्र के संचालन की तैयारियों निरन्तर करते थे वही युद्ध नृत्य में परिवर्तित हो गया। इसके दो समूट अलग-अलग गुटों में बट जाते है, तीर कमान, दान-तलवार, लाठी आदि से सुसज्जित होकर हर प्रकार के आक्रमण का सामना करने के लिए अपने आपको पूर्ण रूप से तैयार रखने का अभिनय करते है तथा युद्ध नृत्य करते हुए दूसरे हथियार सुसज्जित समूह पर आक्रमण करते है। दूसरा समूह भी पूर्ण वीरता व बहादुरी का अभिनय व नृत्य करते हुए मनमोहक ढंग से सामना करता है इस नृत्य में मांदल या ढोल बजाया जाता है। युद्ध नृत्य में कभी कभी तो नृत्य करने वाले शरीर में घाव भी हो जाते है परन्तु वे इसकी परवाह नही करते है। इस प्रकार युद्ध नृत्य भीलों की वीर-रस युक्त बहादुरी को प्रदर्शित करने वाला प्रभावशाली नृत्य है।
दिवाली नृत्य - भील जनजाति समाज में इस नृत्य का प्रदर्शन दीवाली के अवसर पर किया जाता है इसमें युवक-युवतियों विभिन्न रंगों के डंडे हाथ में लेकर वृत्ताकार शक्ल में नृत्य करती है जो रंग-बिरंगी पोशाक पहनकर आनन्दित होते हुए नृत्य करते है। यह नृत्य धार्मिक व सामाजिक कथानकों को गाते हुए किया जाता है।
इस नृत्य प्रक्रिया में युवक-युवतियाँ पाँच डंडों को टकराते हुए ढोल व मंजीरे बजाते है। ये डंड़ें अनेक रंगों से सुसज्जित होते है। नृत्य के साथ लोक गीत भी गाते है तथा अन्त में अर्द्धवृत्ताकार शक्ल सीधी पंक्ति में बदल जाती है। यह शैली नृत्य का रुपान्तर है।
ढोल नृत्य - इसमें ढोल बजाने वाले कि प्रमुख भूमिका होती है। यद्दी गीतों के पद गाते तथा नर्तक के पैरों व नृत्य को नियंत्रित करते है। इसमें आभूषण व पौशाक पहनकर पंक्ति में खड़े हो जाते है। कुछ पात्र बांसुरी बजाते है तो कुछ थाली या मांदल बजाते है साथ ही नृत्य के पात्र कदमों को कभी आगे तो कभी पीछे करते हुए नृत्य करते है।
सारांश - इस प्रकार भील समाज में लोक-नृत्य नामकरण के समान ही बसा हुआ है। क्योंकि इसमें न सिर्फ स्थानीय परिवेश का समावेश है अपितु यह भीलों के कठोर तथा संघर्षमयी जीवन में प्रसन्नता एवं पुनः ऊर्जा को संचारित करने का माध्यम बन चुका है ।
भील जनजाति लोकगीत और लोकनृत्य केवल कला के रूप नहीं हैं, बल्कि ये आदिवासी समाज की आत्मा हैं। इनमें उनका इतिहास, उनकी आस्था, उनका जीवन दर्शन और उनकी सांस्कृतिक चेतना निहित है। ये गीत और नृत्य समाज को एक सूत्र में बाँधते हैं, प्रकृति के प्रति श्रद्धा जगाते हैं और परंपराओं को जीवित रखते हैं।
आधुनिकता के इस युग में जब परंपराएँ धीरे-धीरे मिट रही हैं, तब इन लोककलाओं का संरक्षण अत्यंत आवश्यक है। यदि हम इन्हें जीवित रख पाए, तो न केवल आदिवासी संस्कृति बल्कि भारत की समग्र सांस्कृतिक विविधता भी समृद्ध होती रहेगी।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि भील जनजाति की लोक संस्कृति में लोकगीतों एवं लोकनृत्यों का महत्व अनमोल है - यह उनकी पहचान, एकता, और अस्तित्व की जड़ है।
संदर्भ ग्रन्थ सूची -
1.भाणावत, डॉ. महेन्द्र (1993) "उदयपुर के आदिवासी भारत के लोक कला मण्डल उदयपुर, पृ. 157-160
2.मीणा, डॉ जगदीशचन्द्र (2003) 'भील जनजाति का सांस्कृतिक एवं आर्थिक जीवन (1858-1947 ई.) हिमांशु पब्लिकेशन्स उदयपुर, पृ. 32-33
3.जैन, संतोष कुमारी (1981) "आदिवासी भील-मीणा साधना बुक्स-6 सिवाड एरिया अजमेर रोड, जयपुर पृ. 44-45
4.सुभाषिनी कपुर (1990) "राजस्थान के भील और लोक संस्कृति" सन्मार्ग प्रकाशन दिल्ली पृ. 35
5.डॉ संजय गील (2005) भील समाज में लोक नृत्य ट्राइब माणिक्यलाल वर्मा आदिम जाति शोध एवं प्रशिक्षण संस्थान, उदयपुर खण्ड-37 अंक 3-4 पृ 21, 22, 23
6.वर्मा डॉ. निकुंज (1992) भीलों की सामाजिक व्यवस्था क्लासिकल पब्लिशिंग, कम्पनी नई दिल्ली, पृ. 19-20
7.भानावत, डॉ महेन्द्र (1981) कुवारे देश के आदिवासी मुक्क्तक प्रकाशन, उदयपुर, पृ. 34-35
8.संतोष कुमारी जैन (1981) आदिवासी भील-मीणा साधना चुक्स, 6, सिवाड एरिया, आमेर रोड, जयपुर पृ 58-60
9.गील, डॉ. संजय (2005)" भील समाज में लोक नृत्य ट्राइब खण्ड-37 अंक 3-4, पृ. 21-25
10काले, सुश्री मालिनी (1987) "भील संगीत और विवेचन दिनांच पब्लिकेशन, उदयपुर, पृ. 16-25
संतोष कुमारी जैन (1981) "आदिवासी भील मीणा" साधना बुक्स, 6, सिवाड़ एरिया, आमेर रोड, जयपुर पृ. 44-45
11.निनामा डॉ. गणेशलाल (2004) जनजातीय लोक साहित्य परम्पराओं के बदलते आयाम" एम.बी. पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स जयपुर पृ. 195-205
12.वर्मा डॉ. एम.एल. (1992) 'भीलों की सामाजिक व्यवस्था" क्लासिकल पब्लिशिंग कम्पनी नई दिल्ली, पृ. 19-20
13.संतोष कुमारी जैन (1981) आदिवासी भील मीणा साधना बुक्स, 6, सिवाड़ एरिया, आमेर रोड, जयपुर पृ. 62
14.जैन, श्रीचन्द (1974) 'वनवासी भील, वनवासी मील और उनकी संस्कृति रोशनलाल जैन एण्ड सन्स, जयपुर द्वितीय संस्करण, पृ 25
15.मीणा, डॉ जगदीशचन्द्र (2003) मील जनजाति का सास्कृतिक एवं आर्थिक जीवन (1858-1947 ई.) हिमांशु पब्लिकेशन्स उदयपुर, पृ. 24-27
16.मीना गौड, वडेरा, रमेशचन्द्र (2005) "लेख-भीलों में वैवाहिकी लोकाचारों का बदलता स्वरूप" "ट्राइब" खण्ड-37 अंक 3-4, माणिक्यलाल वर्मा आदिम जाति शोध एवं प्रशिक्षण संस्थान, उदयपुर (राज.) पृ. 12-14
17.दोसी, डॉ. शम्भुलाल (1967) "वागडी भाषी प्रदेश गुजरात रिसर्च सोसायटी, गुजरात संशोधन मण्डल त्रैमासिक पत्रिका अहमदाबाद, माग-10, अंक 1, पृ. 46-47
18. सुभाषिनी, कपूर (1990) "राजस्थान के भील और लोक संस्कृति" सन्मार्ग प्रकाशन दिल्ली पृ. 35
19.दोसी, डॉ. शम्भुलाल (1967) "वागड़ी मावी प्रदेश गुजरात रिसर्व सोसायटी, गुजरात संशोधन मण्डल त्रैमासिक पत्रिका अहमदाबाद, नाग-10, अंक 1. पृ. 46-47
डॉ. कांतिलाल निनामा
अतिथि व्याख्याता
गोविन्द गुरु जनजातीय विश्वविद्यालय
बांसवाड़ा,राजस्थान
शानदार 👍👍
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छा लेख है।
जवाब देंहटाएंNice 👍
जवाब देंहटाएंगूगल बाबा की जय
जवाब देंहटाएंNice 👍
जवाब देंहटाएं👍
जवाब देंहटाएंगूगल बाबा की जय
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