आदिवासियों की प्राकृतिक- धरोहर साझा वन प्रबंधन
जनजातीय समुदाय आज भी देश की मुख्य धारा से पृथक है। यह समुदाय सर्वाधिक उपेक्षित और राजनीतिक दृष्टि से भी सबसे कम शक्तिशाली है। देश के विभिन्न भागों में ऐस समुदाय अपने देश की प्रमुख भाषा, धर्म, संस्कृति और शक्ति संरचना से अलग-थलग देखे जा सकते हैं। इन समुदायों के साथ रंग, जाति, धर्म, कानून एवं पूर्वाग्रहों के आधार पर सामाजिक जीवन में भी भेद किया जा सकता है।
अनेक सामाजिक, आर्थिक एवं प्रौद्योगिकी परिवर्तन के बावजूद विश्व के दूर-दराज क्षेत्रों में लगभग 50 करोड़ आदिवासी हैं जिनके पास अमूल्य पारिस्थितिकी वन की सम्पदा सुरक्षित हैं। इन आदिवासियों और वनों के बीच एक अटूट रिश्ता है अर्थात् आदिवासियों के लिए वन उनके जीवन का आधार है। इन आदिवासियों के पास उपलब्ध पर्यावरणीय जानकारी एवं बुद्धिमता से प्रकृति और मनुष्य के बीच उचित सम्बन्धों को समझने में भी सहायता मिल सकती है ।लेकिन दुर्भाग्य यह है कि प्रौद्योगिकी विकास, पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति की आंधी में आदिम और मूल संस्कृतियाँ, भाषाएँ, रीति रिवाज और जीवन शैली उखड़कर नष्ट हो रही है जिसके कारण समृद्ध पर्यावरणीय ज्ञान और उससे जुड़ी जीवन शैली भी समाप्त होने के कगार पर हैं।
भारत में इन जनजातियों की एक बड़ी आबादी वनों में निवास करती है जिससे इनके हित प्रत्यक्ष रूप से वनों से जुड़े होते हैं। अतः वनों के प्रति इनका लगाव स्वाभाविक है। देश में लगभग 135 जिले हैं जिनमें जनजातीय जनसंख्या सर्वाधिक है। राष्ट्रीय वन नीति 1988 में पहाड़ी जिलों की संख्या 98 बतलाई गयी थी जहाँ वन आच्छादन देश के अन्य भागों की अपेक्षा अधिक बताये गये हैं। जनजातीय बाहुल्य क्षेत्रों में वनों की स्थिति तुलनात्मक रूप से अच्छी हैं।
जनजातीय समुदाय अपने जीवन की रोजमर्रा की जरूरतों की आपूर्ति के लिए वनों पर सदियों से निर्भर रहे हैं जिसे निम्न प्रकार उल्लेखित किया जा सकता है-
1. आश्रय -प्राचीन समय में मनुष्य का आश्रय स्थल वृक्ष थे जो उसे वन्य प्राणियों से सुरक्षा प्रदान करते थे। इसके पश्चात् कृषि का उद्भव हुआ परिणामस्वरूप मनुष्य घासफुस एवं लकड़ी आदि से मकान बनाकर स्थिर जीवन प्रारम्भ करने लगा। आज भी आदिवासियों के मकानों का छप्पर बड़ी-बड़ी पत्तियों की शाखाओं से ढंका होता है। बांस की पट्टियाँ और पलाश या अन्य लताओं से रस्सी का कार्य किया जाता है जो छान छप्पर बांधने के काम आती है ।अर्थात् मकान निर्माण के लिए जनजातीय समुदाय पूर्णतया वनों की लकड़ी पर निर्भर है।
2. खाद्य-आदिवासी लोग अपने पोषण हेतु कृषि के अलावा शिकार एवं फल, फूल, कन्द आदि पर निर्भर है। जनजातीय लोग सामान्यतया चीतल, सांभर, हिरण, मोर, खरगोश, बटेर आदि का शिकार करते हैं तथा आम, चिरोंजी, इमली, तेंदू, महुआ आदि के अलावा कई प्रकार की जड़ों का भी सेवन करते हैं। भोजन के लिए केला, माहूल, पलाश तथा शाल के वृक्षों की पत्तियों का उपयोग किया जाता है।
3. मद्यपान एवं धुम्रपान-सामान्यतया आदिवासियों में मद्यपान और धुम्रपान का प्रचलन पाया जाता है। मदिरा बनाने के लिए महुआ का फल, चावल, जौ आदि सर्वाधिक है जबकि ताड़ी ताड़ के वृक्षों से प्राप्त की जाती है तथा धुम्रपान हेतु तेंदू की पत्तियां और तम्बाकू से बनी बीड़ियों का सेवन किया जाता है।
4. ईधन-आदिवासी लोग भोजन पकाने एवं अन्य कार्यों के लिए ईंधन के रूप में लकड़ी, पत्तियों एवं घास आदि का उपयोग करते हैं, जो उन्हें आसपास के वनों से प्राप्त होती है।
5.औषधियाँ-आदिवासी लोग विभिन्न रोगों के निवारण के लिए वानस्पतिक औषधियों का उपयोग प्राचीन समय से करते आये हैं। ये लोग औषधियों को पहचानने एवं उपयोग करने के विशेषज्ञ होते हैं।
6. शिल्प एवं उद्योग-आदिवासी लोग रस्सी टोकनी कृषि के उपकरण, मकान निर्माण के लिए आवश्यक सामग्री वन से प्राप्त करते हैं। इसके अतिरिक्त शिल्प कार्य एवं उद्योगों के लिए कच्चा माल भी वनों से प्राप्त करते हैं।
आदिवासी समुदाय की अधिकांश आवश्यकताएँ वनों से पूरी होती है, लेकिन आदिवासी समुदायों में भी समय के साथ परिवर्तन आया है क्योंकि सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और प्रौद्योगिकी परिस्थितियों में परिवर्तन परिणामस्वरूप यह समुदाय अछूता कैसे रह सकता है।
वर्तमान परिस्थितियों में आदिवासी समुदाय में असंतोष व्याप्त है क्योंकि विभिन्न स्वार्थी समूहों की घुसपैठ के कारण उनके हितों को चोट पहुंचती हैं तथा वन सम्पदा के मनमाने दोहन के कारण आदिवासियों की जरूरतें पुरी नहीं हो पा रही हैं। वन सम्पदा का दोहन होता रहा तथा आदिवासियों को वनों से दरकिनार किया जाता रहा तो धीरे-धीरे यह वन सम्पदा नष्ट होती चली जायेगी। अतः वन नीति में यह प्रावधान होना चाहिये कि वन के आसपास वालों का जीवन वानिकी से जुड़ा रहे। अतः उन्हें वन प्रबन्धन में सहभागी बनाया जाना चाहिए तभी इस वन सम्पदा को बनाये रखा जा सकता है।
साझा वन प्रबंधन -भारत सरकार ने 1990 के दशक में साझा वन प्रबंधन की नीति लागू की। इसका मुख्य उद्देश्य था कि वन विभाग और स्थानीय ग्रामवासी मिलकर वनों का संरक्षण करें। इसमें आदिवासी समाज की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि वे पहले से ही जंगलों को अपना घर मानकर उनकी रक्षा करते आए हैं।
साझा वन प्रबंधन के उद्देश्य-
1.वनों की रक्षा और पुनर्जीवन करना।
2.स्थानीय समुदायों को गैर-काष्ठ वन उपज (NTFP) पर अधिकार देना।
3.रोजगार और आजीविका के अवसर बढ़ाना।
4.पर्यावरणीय संतुलन और जैव विविधता का संरक्षण करना।
आदिवासियों की भूमिका-आदिवासी गाँवों में वन संरक्षण समितियाँ (Forest Protection Committees) बनाई जाती हैं, जिनमें स्थानीय लोग शामिल होकर जंगल की निगरानी करते हैं।
वे अवैध कटाई और शिकार पर नियंत्रण रखते हैं।
महिलाएँ इंधन, पत्ती, चारापत्ती, जंगली फल-फूल और जड़ी-बूटियाँ इकट्ठा करती हैं, जिससे परिवार का भरण-पोषण होता है।वे पारंपरिक ज्ञान का उपयोग कर जंगल को टिकाऊ तरीके से उपयोग में लाते हैं।
साझा वन प्रबंधन के लाभ-
पर्यावरण संरक्षण-आदिवासी समाज और वन विभाग के संयुक्त प्रयास से जंगलों की हरियाली बढ़ती है और मिट्टी का कटाव कम होता है।
आजीविका में सुधार-महुआ, तेंदू पत्ता, गोंद, लाख, शहद जैसी गैर-काष्ठ उपज से आदिवासियों की आय होती है।
पारंपरिक ज्ञान का संरक्षण- जड़ी-बूटी और औषधियों का पारंपरिक ज्ञान आधुनिक विज्ञान के साथ मिलकर नई संभावनाएँ पैदा करता है।
सामाजिक सहभागिता-ग्रामसभा और वन समितियाँ लोगों को निर्णय लेने में शामिल करती हैं, जिससे लोकतांत्रिक सहभागिता बढ़ती है।
समस्याएं एवं चुनौतियां -
A.अधिकारों का विवाद-कई बार वन विभाग और आदिवासियों के बीच अधिकारों और उपयोग की सीमाओं को लेकर टकराव होता है।
B.खनन और औद्योगिकीकरण-आधुनिक विकास परियोजनाएँ जैसे खनन, बाँध, सड़कें आदि जंगलों और आदिवासियों की संस्कृति के लिए खतरा हैं।
C.प्रशासनिक ढिलाई-कई बार सरकारी योजनाओं का लाभ आदिवासियों तक पूरी तरह नहीं पहुँच पाता।
D.सांस्कृतिक संकट-बाहरी प्रभाव और शहरीकरण के कारण आदिवासियों की पारंपरिक जीवनशैली और ज्ञान धीरे-धीरे लुप्त होता जा रहा है।
सारांश -आदिवासियों का वन विनाश के प्रति विश्व के अनेक भागों में आदिवासियों द्वारा समय-समय पर आवाज उठायी जाती रही है और वन संरक्षण तभी संभव है जब आदिवासी के हितों का संरक्षण हो ।
जनजातीय लोगों और वनों के मध्य सहजीवी सम्बन्ध अपनाते हुए वन विभाग निगमों सहित वन प्रबन्धन हेतु उत्तरदायी अभिकरणों का एक मुख्य कार्य है कि वनों की सुरक्षा, पुनर्जीवन और विकास में आदिवासी लोगों को घनिष्ठता से जोड़ा जाये। इस प्रकार लोगों की परम्परागत अधिकारों एवं हितों की सुरक्षा तथा वन प्रबन्धन हेतु जनजातीय सहकारी समितियाँ ,श्रमिक सहकारी समितियाँ, सरकारी निगम आदि संस्थाओं को भागीदार बनाते हुए साझा वन प्रबंधन को अपनाना चाहिए।
राजस्व गाँवों की तरह वन्य ग्रामों का विकास किया जाना चाहिए।
डॉ. कांतिलाल निनामा
अतिथि व्याख्याता
गोविन्द गुरु जनजातीय विश्वविद्यालय
बांसवाड़ा, राजस्थान
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ohh 😮
जवाब देंहटाएंNice 👍
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