वनाधिकार अधिनियम 2006-परंपरागत से कानूनी अधिकार तक

     वन आदिवासियों की धरोहर एवं शरण स्थली रहे है। वनों से ही उनकी संस्कृति की सुरक्षा और गरिमा प्रदान होती रही हैं। वन और आदिवासी एक -दूसरे के पूरक है।वस्तुतः वन जनजातियों के पोषक रहे है। जिनसे उन्हें विभिन्न प्रत्यक्ष लाभ जैसे ईधन, मवेशियों के लिए चारा मकान निर्माण के लिए लकड़ी खाद, फल-फूल, सब्जियां खाने योग्य कन्दमूल, चिभिन्न प्रकार की लकड़ियां, जडी-बूटिया अनेक वाणिज्य उपयोगी लघु वन उत्पादित वस्तुएं आदि प्राप्त हुए है। अप्रत्यक्ष लाभ-स्वच्छ और शीतल वायु, पक्षियों का कलरव, संतुलित तापमान समय पर वर्षा, हरियाली, खुशबू आंधी और तूफान से रोक तथा बाढ़ आदि से बचाव भी होता रहा है।
      वनों के संरक्षण से ही जनजातियों के परम्परागत विश्वास ,प्रथाएं ,रिवाज, लोकगीत, लोकनृत्य, लोककथाए, लोकमान्यताएं उनकी बोली तथा उनके जादू-टोने आदि की बाहरी दुनिया के हस्तक्षेप से रक्षा होती रही है। अतः वनों से न सिर्फ उन्हें मातृत्व तुल्य लाभ प्रदान हुआ है बल्कि उन्हें आश्रय, भोजन, रोजगार तथा सुदृढ संस्कृति भी प्रदान होती रही है। परंतु ब्रिटिश उपनिवेशवाद एवं भारतीय वन नीति के अतिरिक्त आधुनिक भारत में जनसंख्या विस्फोट, सड़कें एवं संचार सुविधाओं खनन-उत्खनन नदी घाटी परियोजनाओं के निर्माण एवं उनके प्रभावित परिवारों को बसाने के लिए वनों का दोहरा नुक़सान हुआ है। परिणामस्वरूप आदिवासियों की आर्थिक क्रियाएं शुन्य हो गयी है एवं उनका शहरों की और पलायन बढ़ने लगा जिससे उनके पारिवारिक जीवन में कलश,स्वास्थ्य में गिरावट तथा उनके सामाजिक, धार्मिक और परम्परागत विश्वासों में शिथिलता आयी है।
     सरकार द्वारा लागू की गयी वनीकरण की विभिन्न योजनाएं जैसे- सामाजिक वानिकी सुखा अधिनस्थ कार्यक्रम, पड़त भूमि विकास कार्यक्रम एवं अकाल राहत कार्यक्रमों के अन्तर्गत्त वृक्षारोपण की योजनाएं आदिवासियों की आशाओं के विरुद्ध रही है। नदी घाटी परियोजनाओं  से प्रभावित जनजातियों को अपने पैतृक गांवों से न सिर्फ विमुख होना पड़ा है, अपितु एवज में उन्हें अनउपजाऊ एव ऊँची सतहों की पथरीली भूमि आवंटित की गई है। जहां उन्हें विभिन्न आर्थिक चुनौतियों का सामना करने के लिए मजबूर किया गया है तथा दूसरी और उनके पैतृक गांवो के प्रति लगाव परम्पराओं एवं भावनाओं को आघात पहुंचाया है। जंगलों की वन सम्पदा से ही जनजाति समाज की संस्कृति पुष्पित एवं पल्लवित हुई है।
      सामान्यतः जनजातीय समुदाय जंगलों पहाड़ों एवं सुदूर सुवनों में रहने वाले ऐसे मानव समुदाय है जिसका औद्योगिक और नगरीय समुदायों से बहुत कम सम्पर्क रहा है तथा अपनी पृथकता के कारण विशेष सभ्यता और सामाजिक व्यवस्था से अधिक पहचाने गए है।
वन सच्चे मायने में उनके पोषक रहे है, जहाँ से उन्हें प्रकृक्ति द्वारा प्रदत्त हरी-भरी गोद एवं स्वच्छ वातावरण इत्यादि प्रदान हुआ है। वनों के संरक्षण में वे अपनी सीमित आवश्यकताओं की पूर्ति करते रहे है। स्वयं आदिवासी लोग अपने आपको वनपुत्र मानते है। वनों के संरक्षण में उन्हें शिकार मास मवेशियों के लिए चारा अपने मकानों के लिए काष्ठ व अन्य लकड़ियों की पूर्ति होती रही है। वनों को दैवीय शक्ति मानकर इनकी पूजा करते है। चूंकि इनकी आवश्यकताए वनों पर ही निर्भर रही है तथा वनों के संरक्षण में ही इनका हित निहित है।

 अधिनियम की पृष्ठ भूमि-ब्रिटिश शासनकाल में 1865, 1878 और 1927 के भारतीय वन कानूनों ने वनवासियों को जंगलों से अलग कर दिया। इन कानूनों का मुख्य उद्देश्य वनों का दोहन कर राजस्व और संसाधन प्राप्त करना था, न कि स्थानीय लोगों का कल्याण। स्वतंत्रता के बाद भी वन विभाग का नियंत्रण वनों पर बना रहा और आदिवासी अपने ही क्षेत्र में अधिकारों से वंचित रहे। इसी स्थिति को देखते हुए, लंबे संघर्षों और आंदोलनों के बाद संसद ने वनाधिकार अधिनियम 2006 पारित किया, जिसे 1 जनवरी 2008 से पूरे देश में लागू कर दिया गया। इस अधिनियम का पूरा नाम है -"अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परंपरागत वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006"।
एन.एन. व्यास के अनुसार सन् 1948 में राजस्थान के गठन के बाद जनजातियों को 1949-55 की समयावधि में वनों के उपयोग की अधिक सुविधाएं प्रदान की गयी जो क्रमशः इस प्रकार है-

1.प्रत्येक जनजाति परिवार को हर तीन साल में मकान निर्माण के लिए 168 घन फीट काष्ठ और 15 घन फीट काष्ट कृषि उपकरणों हेतु दिया जायेगा।

2.ईंधन मुफ्त दिया जायेगा

3.वन क्षेत्र में मवेशियों को चरने दिया जायेगा।

4.घेराबन्दी के लिए मुफ्त आठियां प्रदान करना।

5.घास एवं पत्तियों का चारा मुफ्त में प्रदान करना
             आदि रियायतें प्रदान की गयी।
     वर्तमान में वन विभाग द्वारा आरक्षित एवं सुरक्षित वनों पर भी जनजातियों के अधिकार लुप्त हो गए है। वनों एवं उनकी रियायतों पर प्रतिबन्ध लगा दिए गए तथा इनका उल्लंघन करने वालों को उचित दण्ड का प्रावधान रखा गया। परिणामस्वरूप राज्य के विभिन्न जनजातीय लोग वन उत्पादित वस्तुओं से वंचित हो गये है।

मानवता को वनों से होने वाले लाभ -
       वनों से कई लाभ होते है। जैसे -
A जलवायु को कम व सम बनाना वर्षा आकर्षित करनाl B बोढ़ वआंधियों के प्रकोप को कम करना।
C भूमि क्षरण को नियंत्रित रखना।
D वनस्पति अंश प्रदान करके मिट्टी में ड्यूमस तत्व के द्वारा उत्पादकता बढाना।
Eभूमिगत जल स्तर को बनाये रखाना।
 Fवन्य जीवों को संरक्षण प्रदान करना ।
Gप्राकृति सौन्दर्य में वृद्धि करना
H जैव विविधता बनाये रखना जैविक संतुलन बनाये रखना । 
Iवन वर्षा के समय जल के प्रवाह को नियंत्रित करते है तथा मृदा अपरदन एवं बाढ़ की समस्याओं पर नियंत्रण रखने के लिए प्रभावी भूमिका निभाते है। ये वनस्पत्ति एवं जीव जगत की अनेक प्रजातियों को संरक्षण प्रदान करते हैं।

    वनों के विनाश से इन सभी लाभों से मानवता वंचित होती जा रही है। अत्यधिक आर्थिक महत्व से आधुनिक युग में वनों का अदूरदर्शितापूर्ण ढंग से दोहन किया जा रहा है। विश्व पर्यावरण एवं विकास आयोग के अनुसार विश्व में प्रतिवर्ष 110 लाख हेक्टेयर भूमि के वन नष्ट किये जा रहे है। पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार प्रत्येक देश में उपलब्ध भूमि के लगभग 33 प्रतिशत भाग पर वन होना आवश्यक है। भारत में केवल 19 प्रतिशत भू-भाग पर ही वन पाये जाते हैं। राजस्थान में कुल क्षेत्रफल का 9.49 प्रतिशत भाग वनों से आच्छादित है। राजस्थान में कुल वन क्षेत्र 32.549.64 वर्ग किमी है।राजस्थान में कुल वन क्षेत्र 32.549.64 वर्ग किमी है। जिसका 39.26 प्रतिशत आरक्षित वन. 52 62 प्रतिशत रक्षित वन और 8.48 प्रतिशत अवर्गीकृत वन है। राज्य में प्रति व्यक्ति ० 06 हेक्टेयर वन क्षेत्र ही है जो राष्ट्रीय स्तर पर 0.11 हैक्टेयर प्रति व्यक्ति से कम है।

वन अधिकार मान्यत्ता कानून 2006-
     वनों से जुडी आजीविका एवं अधिकारों को लेकर अनुसूचित जनजातियों एवं अन्य परम्परागत वन निवासियों के अधिकार मान्य करने बाबत् केन्द्र सरकार ने वन अधिकार मान्यता कानून 16 दिसम्बर 2006 को संसद में पारित कर 31 दिसम्बर 2007 को लागू कर दिया है और 1 जनवरी 2008 को इसको नियम भी नोटिफाई हो कर लागू हो गए है। वन अधिकार मान्यता कानून से व्यक्तिगत्त सामुदायिक अधिकारों के साथ-साथ वन सरक्षण की जिम्मेदारी भी साध्य की गई है इसकेअलावा वन्य जीव कानून-आदिवासी स्वशासन कानून भारतीय वन अधिनियम तथा पंचायती राज कानून की भूमिका भी इस कानून के क्रियान्वयन में महत्वपूर्ण है।
      वनों में रहने वाले अनुसूचित जनजातियों और अन्य परम्परागत वन निवासियों को जो पीढ़ियों से निवास कर रहे है उन्हें उनके पारम्परिक अधिकारों को कानून के अनुसार मान्यता दी गई है। वन अधिकारों और वन भूमि में अधिभोग को मान्यता देने, वनों का दीर्घकालीन उपयोग के लिए संरक्षण जैव विविधता पर्यावरण और पारिस्थितिकी के सन्तुलन को बनाए रखने तथा अनुसूचित जनजाति व अभ्य परम्परागत वन निवासियों की आजीविका एवं खाद्य सुरक्षा बनाये रखने व वनों के संरक्षण की व्यवस्था को सुदृढ करने के लिए भारत सरकार द्वारा वनाधिकार मान्यता अधिनियम लागु किया गया है. इस कानून से वन में रहने वाले आदिवासी एवं अन्य परम्परागत वन निवासियों को व्यक्तिगत एवं सामुदायिक अधिकार मिले है।

(1.) व्यक्तिगत वन अधिकार- 
निवास एवं कब्जे की खेती का पट्टा
1- जो आदिवासी परिवार जंगल की जमीन पर रहकर खेती कर रहा है उसे वास्तविक कब्जों की वन भूमि में 4 हेक्टेयर जमीन का पट्टा मिलेगा।
2- अन्य परम्परागत वन (गैर आदिवासी) निवासी जो जंगल भूमि में 13.12.1930 के पहले उस वन क्षेत्र में रहकर खेती करने वाले को खेती का अधिकार पत्र मिलेगा। इस प‌ट्टे को बेचना इस्तान्तरित एवं गिरवी रखना प्रतिबंधित है। पट्टा पत्ति व पत्नी के नाम से मिलेगा।
3- जिस आरक्षित वन एवं आरक्षित क्षेत्र का अंतिम नोटिफीकेशन नहीं किया गया है उस स्थान पर काबिज लोगों को उनकी काबिज जमीन का पट्टा मिलेगा।
4- अपने गांव की सीमा के अन्दर या सीमा के बाहर पारम्परिक रूप से लघुवनोपज को प्रकट्‌ट्ठा करने उपयोग करने तथा वन क्षेत्र के भीतर बेचने का अधिकार प्राप्त होगा।
5- लघु वनोपज को परिवहन के लिए सिरबोहर साईकिल एवं डाथगाडी का उपयाग करन की इजाजत दी गई है। 

(2.)सामुदायिक अधिकार-
   यह इस कानून में सबसे महत्वपूर्ण एवं ताकतवर अधिकार है। किसी भी गांव की पारम्परिक सीमा के भीतर जो भी वन सम्पदा है उस तक पहुंचना बचाना बढ़ाना और उसका प्रबन्धन करने का अधिकार है।
1- पशुपालन करने वाले समुदाय पारम्परिक रूप से जिन बन क्षेत्रों का उपयोग करते आये है उन पर उनका अधिकार होगा। इसमें सभी वन क्षेत्र शामिल है चाहे वे आरक्षित वन, संरक्षित वन तथा राष्ट्रीय पार्क एव अभ्यारण्य भी है। (धारा 2 (ए))
2- जंगल से निस्तार का अधिकार - इस सम्बन्ध में पुराने समय से राजाओं एवं जमीदारों के द्वारा मिले अधिकार सम्मिलित है।
3- वन के अन्दर जलाशयों से पानी सिंचाई, मछली चराई करने का अधिकार तथा जल उपयोग का पारस्परिक अधिकार है।

अन्य अधिकार - उपर्युक्त अधिकारों के अतिरिक्त अन्य अधिकार भी अधिनियम में शामिल है।
1- सारे वन ग्राम को राजस्व ग्राम में बदलने का अधिकार।
2- 13.12.2005 के पहले किसी आदिवासी या अन्य जंगलवासियों को उनके जंगल-जमीने से गैर कानूनी ढंग से हटाया गया है या उन्हें सही मुआवजा नहीं दिया गया है. तो आज की स्थिति में जहां पर है वहां के काबिज की जमीन पर अधिकार देना होगा।
3- वन क्षेत्र में विकास के कार्य हो सकेंगे।।
वनाधिकार कानून के तहत वन अधिकारों को तय करने तथा अतिम निर्णय प्रक्रिया में तीन समितियां होगी। (1) ग्राम सभा (2) उपखण्ड स्तर तक की समित्ति एवं (3) जिला स्तर की समिति। लेकिन ग्राम सभा की समिति सबसे पहले एवं महत्वपूर्ण है। जिला स्तर की समिति का पफैसला अंतिम होगा। बारा (6) परन्तु दावे स्वीकार करने व भौतिक सत्यापन का कार्य वन अधिकार समिति करेगी। वन विभाग द्वारा बनाए गए ग्राम वन तमिति व वन सुख्ता समिति वन विभाग के अधिनस्थ है और समितियों कोकोई कानूनी अधिकार नहीं है। वन अधिकारों को पाने के लिए सबसे पहले ग्राम सभा को अपना लिखित दावा पेश करना होगा। दावे पर खुली चर्चा होगी। कम से कम दो सबूत बनाने पड़गे। दावा फार्म जमा करवाना होगा।

कानून में कमियां-
   भारत सरकार ने नव उदारवाद एवं कम्पनियों तथा पूंजीपतियों के स्वार्थ को ध्यान में रखखते हुए आदिवासी एवं अन्य जंगलवासियों के हितों का बलिदान किया है। सरक्षित क्षेत्र में रहने वाले लोगों के हितों को भारी नुकसान पहुंचाने की कोशिश की है।
1- कानून में कहा गया है कि " प्राथमिक रूप" से वन में रहने वाले लोगों को ही अपने काबिज की जमीन मिलेगी।
2- ग्राम सभा को पूरा फैसला करने का अधिकार नहीं है।
3- ग्राम सना में दो तिहाई कोरम का प्रावधान किया गया है जो व्यावहारिक रूप में संभव नहीं है।
4- ग्राम सभा का कार्य केवल दाब के प्रस्तावों का अनुमोदन कर उन्हें उपखण्ड स्तरीय समिति को भेजने का ही है जो ग्राम सभा के अधिकारों का हनन है।
5- निस्तार के अधिकारों को पूरा स्पष्ट नहीं किया गया है।
6- लघु वनोपज पर मालिकाना अधिकार देने के बाद, उनको वन क्षेत्र से बाहर बेचने के लिए पाबन्दी लगाकर अधिकार को कमजोर कर दिया गया है।
7- इस कानून के क्रियान्वयन में गावो के लोग स्वयं बाधक बने हुए है। गैर आदिवासी क्षेत्रों में जो जहां आदिवासी कम संख्या में है वहां तो आदिवासी दावेदारों के दावों को वन अधिकार समितियों द्वारा लिया ही नहीं जा रहा है।
8- सामुदायिक वन अधिकारों को राज्य सरकारे और वन विभाग भी नहीं चाहता है कि लोगों को मिल जाए क्योंकि इससे राज्य को वन उपज से मिलने बाला राजस्व के बन्द होने की संभावना है।

सुझाव एवं निष्कर्ष -
1- वन अधिकार समितियों को विधि सम्मत प्राप्त अधिकार के अनुकूल ही उन्हें सुविधाएं दी जाए।
2- वन अधिकार समितियों का गठन निर्वाचन कानून की भावना के अनुसार किया जाए एवं पुर्न मूल्यांकन कर उसके अनुसार पुर्नगठन किया जाए।
3- वन अधिकार समितियों को इस कानून की पूरी जानकारी का प्रशिक्षण दिया जाए।
4- क्रियान्चयन प्रक्रिया से जुड़े कर्मचारियों को इन समितियों को सहयोग करने के निर्देश दिये जाये।
5- जो वन अधिकार समितियां कार्य नहीं कर रही है उनकी जगह पर दूसरी समितियों के निर्वाचन करने के स्पष्ट निर्देश दिए जाए।
6- ग्राम सभा द्वारा अनुमोदित दावों को भी उपखण्ड समिति अयोग्य कर रही है. जबकि दावे विधि अनुसार आवश्यक दस्तावेजों और साक्ष्यो के साथ भेजे जा रहे है।
7- निरस्त दावों की सूचना दावेदार को लिक्षित में मिले उसकी व्यवस्था कराई जाये।
8- जिन गांवों में जभी तक दावा प्रपत्र उपलका नहीं है वहां उपलब्ध कराए जाए। 

निष्कर्ष - मानव अपने स्वार्थवश भौतिक उन्नति के उद्देश्यों से आदिकाल से विविध प्रयोग करता रहा है। मुलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मानव द्वारा भौतिक संसाधनों का प्रयोग जब तक केवल अपनी सीमित आवश्यकताओं की पूर्ति तक संयमित रहा तब तक पर्यावरण आर परिस्थितिकी संतुलन बना रहा। लेकिन आधुनिक काल में तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या संसाधन दोहन, और प्रकृति के प्रति बढ़ती उपेक्षा की भावना से पर्यावरण हास की एक ऐसी विकट परिस्थिति पैदा हो गई है कि वन संरक्षण के बारे में सोचना आवश्यक हो गया है।
     पारिस्थितिकीय सन्तुलन के लिए देश में प्रतिवर्ष "वन महोत्सव व साथ ही 21 मार्च को "विश्व वानिकी दिवस तथा अक्टूबर के प्रथम सप्ताह में "वन्य जीव सप्ताह के रूप में मनाया जाता है। इसमें कोई दो मत नहीं है कि वन और वन्य प्राणियों का विनाश मानव के लिए दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति का सूचक है क्योंकि वन्य जीवन के बिना वनों की कोई सार्थकता नहीं है और वनों के बिना हम जीव जगत का अस्तित्व नहीं हो सकता।
     

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