भारत में जनजाति विकास की नीतियां और जनजाति विकास
विश्व के सभी समाजों में विकास के कार्य उन्हीं लोगों के लिए जाते हैं जो विकास के विभिन्न क्षेत्रों में अत्यधिक पिछड़े होकर जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में असमर्थ होते हैं अथवा अभावग्रस्त होकर, जीवनयापन करने को मजबूर रहते हैं। भारतीय समाज में भी एक ऐसा समुदाय है जो सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक दृष्टि से आज भी अत्यधिक पिछड़ा है जिन्हें आदिम जाति, आदिवासी, वन्यजाति, गिरीजन, जनजाति, अनुसूचित जनजाति आदि नामों से सम्बोधित किया जाता रहा है।
वैरियर एल्विन इन्हें आदिम जाति से सम्बोधित करते हैं वहीं डॉ. घुरिये इन्हें पिछड़े हिन्दू मानते हैं।"
जनजाति- विकासात्मक गतिविधियाँ तथा समाज की मुख्य धारा से अलग-अलग पहाड़ी क्षेत्रों, सघन वनों, दुर्गम एवं अविकसित यातायात वाले क्षेत्रों में रहती है। निवास की दृष्टि से जनजाति के लोग विश्व में अफ्रीका के बाद भारत में रहते हैं। जिनकी वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार 8,43,26,248 है, जो देश की कुल जनसंख्या का 8.2 प्रतिशत है जिनकी भारत में 500 जनजातियाँ रहती है।
जनजाति विकास के आधार पर वर्गीकरण-
जनजाति विकास के आधार पर 4 प्रकार से वर्गीकरण किया गया है।
1- अत्यधिक पिछड़ा समुदाय
2- चल कृषि समुदाय
3- स्थाई कृषक समुदाय
4- सात्मीकृत समुदाय (धर्म परिवर्तन के बाद )
जनजाति विकास की प्रचलित धारणाएँ-
वर्तमान में जनजाति विकास पर बुनियादी रूप में दो धारणाएँ प्रचलित है।
1- जनजातियों की जीवन शैली में कोई बाहरी हस्तक्षेप न किया जाये और इन्हें उनके पर्यावरण में जैसे का तैसा
रहने दिया जाये ।
2- जनजाति क्षेत्रों में उसी तरह विकास किया जाये जिस तरह अन्य क्षेत्रों में किया जाता है और उनका समाज के अन्य लोगों की तरह सर्वांगीण क्षेत्रों में विकास कर, विकास की मुख्य धारा में जोड़ा जाना चाहिये ।
जनजाति की समस्याएँ-
जब हम जनजाति विकास की बात करते हैं तो निश्चित ही हमारा ध्यान उनकी समस्याओं की ओर जाता है, जो निम्नांकित है।
1- अशिक्षा, अंधविश्वास एवं रूढ़िवादिता ।
2- गरीबी, बेरोजगारी एवं ऋणग्रस्तता ।
3- वनों, पहाड़ी क्षेत्रों एवं दुर्गम स्थानों में निवास ।
4- आवागमन एवं संचार साधनों का अभाव ।
5- कृषि भूमि का अभाव एवं वन विभाग के कानून ।
6- बिचौलियों एवं साहूकारों द्वारा शोषण ।
7- रोगग्रस्त होना एवं स्वास्थ्य जनित समस्याएँ होना ।
8- ईसाईकरण (धर्मान्तरण) एवं परसंस्कृति ग्रहण ।
9- भाषा और अलगाव की समस्याएँ
10- शासकीय नीतियों एवं जानकारियों का अभाव
11- राजनैतिक चेतना एवं नेतृत्व का अभाव
12- प्रशासन कमियाँ, भेदभाव एवं भ्रष्टाचार
जनजाति विकास का उद्देश्य-
1- जनजातीय समस्याओं का निदान कर उनका सर्वांगीण विकास करना ।
2- जनजातीय और गैर जनजातीय समाज के बीच की खाई को पाटना ।
3- जनजाति को राष्ट्र की मुख्य धारा से जोड़ना एवं संस्कृति की रक्षा करना।
4- भारत की प्रगति में जनजातियों की सहभागिता प्राप्त करना ।
जनजाति विकास की नीतियाँ (योजनाएँ) -
स्वतंत्रता के पूर्व- जनजातीय विकास को लेकर ब्रिटिश शासन द्वारा जितने भी प्रयास किये गये वे जनजाति क्षेत्रों की वनोपज एवं संसाधनों का दोहन करने तथा कानून और व्यवस्था बनाये रखने तक ही सीमित रहे।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् - जनजाति विकास की दिशा में न केवल शासन का दृष्टिकोण ही बदला अपितु संविधान निर्माताओं ने जनजातियों की शोषण से सुरक्षा तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सर्वांगीण विकास करने की दृष्टि से चार प्रकार से संवैधानिक संरक्षण एवं सुविधाएँ प्रदान की गई।
1- रक्षात्मक व्यवस्था
2- विकासात्मक व्यवस्था
3- प्रशासनिक व्यवस्था
4- आरक्षण व्यवस्था
जनजातीय विकास की दिशा में संवैधानिक संरक्षण-
1- भारत के संविधान के अनुच्छेद 15, 15 (1), 16, 16 (4), 17, 19, 23, 25, 29, 46, 164, 244, 275, 330, 332, 335, 339, 340, 342, 388, 399 के अन्तर्गत केन्द्र और राज्य सरकारें संवैधानिक व्यवस्थाओं के अनुरूप सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक आवास एवं स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों में संरक्षण एवं विविध योजनाओं के माध्यम से सुविधाएँ उपलब्ध करा रही है।
2- संविधान की 5 एवं 6 अनुसूची में आदिवासी की पृथक प्रशासनिक व्यवस्था के प्रावधान के साथ राष्ट्रपति एवं राज्यपालों को विशेष अधिकार प्रदान किये गये।
जनजाति विकास की दिशा में अन्य कार्य योजनाएँ-
1- पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से विकास के विभिन्न प्रारूप (मॉडल) और सम परक कल्याणकारी योजनाएँ।
2- लघु एवं सीमान्त कृषकों के लिये "जनजाति विकास अभिकरण"
3- वर्ष 1974 में आदिवासी उपयोजनान्तर्गत विकास अभिकरणों का गठन योजनान्तर्गत कार्य।
(अ) जनजातीय केन्द्रीकरण का चुनाव वाले क्षेत्र
(ब) बिखरी हुई जनजातियों का चयन
(स) आदिम जनजाति समूहों की पहचान करना।
4- वर्ष 1985 में - बीस सूत्रीय गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम (जनजातीय क्षेत्रों में अद्योसंरचनात्मक सुविधाओं का विस्तार करना)
5- वर्ष 1987 में- आदिवासी सहकारी विपणन विकास महासंघ (ट्रायफेड का गठन)
6- वर्ष 1989 में- राष्ट्रीय अनुसूचित जाति एवं जनजाति वित्त विकास निगम का गठन।
7- वर्ष 1993 में - 73वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा पंचायत राज व्यवस्था के अन्तर्गत जनजाति के लोगों की भागीदारी बढ़ाने, नेतृत्व क्षमता विकसित करने तथा पुरूषों एवं महिलाओं को पंचायत व्यवस्था में सहभागी बनाने हेतु स्थान सुनिश्चित किये गये ।
8- वर्ष 1996 में- भूरिया समिति की सिफारिशों को स्वीकार कर पंचायत अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार योजना- योजना 9 राज्यों में लागू की गई जिनमें- आंध्रप्रदेश, झारखण्ड, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, महाराष्ट्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में क्रियाशील है।
9- वर्ष 1999 में स्वतंत्र जनजातीय कार्य मंत्रालय का गठन ।
10- वर्ष 2001 में - जनजाति बाहुल्य राज्यों में स्वतंत्र अनुसूचित जनजाति वित्त एवं विकास निगम का गठन।
11- वर्ष 2004 में - अनुसूचित जनजाति आयोग का गठन ।
इस प्रकार संवैधानिक प्रावधानों तथा केन्द्रीय शासन एवं राज्य शासन द्वारा जनजाति विकास योजनाओं तथा संवेधानिक प्रावधानों के अन्तर्गत अनेक प्रकार के संरक्षण एवं विभिन्न प्रकार की सुविधाएँ देने और विभिन्न समाज सेवी संस्थाओं के प्रयासों के बावजूद हम उनका आशातीत विकास नहीं कर सके । जो सोचनीय तथ्य होकर हमारी कथनी और करनी को स्पष्ट करता है। इसके लिये दोषी कौन है ?
1- क्या संवैधानिक संरक्षण के प्रावधान नाम मात्र दिखावा है ?
2- क्या हमारी विकास योजनाएँ छलावा कर रही है ?
3- क्या शासन दोषी है जो संवैधानिक एवं विकास योजनाओं द्वारा प्रदत्त सुविधाएँ देने का क्रियान्वयन
ठीक नहीं कर रही है।
4- क्या इनके जनप्रतिनिधि अथवा स्वयं जनजाति के लोग दोषी हैं?
5- क्या जनजाति के लोग अपना स्वयं का विकास नहीं चाहते हैं?
उपरोक्त प्रश्न हम पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं जो हमें सोचने को मजबूर करते हैं कि (1) हम इनका विकास किस प्रकार करें (2) उन कमियों को खोजें जो कहीं न कहीं इनके विकास में अवरोधक बनी हुई है।
फिर भी जनजातियों पर भारतीय संविधान में किये गये प्रावधानों एवं संरक्षण तथा कल्याणकारी विकास योजनाओं का निम्नानुसार प्रभाव पड़ा है।
1- जनजाति क्षेत्रों में शिक्षा का प्रचार-प्रसार हुआ है, जिसके कारण ये लोग शिक्षक, क्लर्क, डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, प्रोफेसर, प्रशासकीय अधिकारी तथा व्यापार व्यवसाय के क्षेत्र में अहम् भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं।
2- इनमें राजनैतिक चेतना जागृत हुई है और नेतृत्व क्षमता का विकास हुआ है।
3- इनमें अंधविश्वास में कमी आई है, वहीं रूढ़ियों का प्रभाव कम हुआ है।
4- इनकी गरीबी और बेरोजगारी में किसी हद तक कमी हुई है।
5- कृषि के क्षेत्र में विकास हुआ है। कृषि क्षेत्र में नये तकनीकी साधनों का प्रयोग करने लगे हैं, जिसमें इनकी आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ है।
6- इनकी महिलाओं के जीवन स्तर में सुधार होने लगा है।
7- ये आधुनिकता के सम्पर्क में आने लगे हैं। भौतिक साधनों का उपयोग करने लगे हैं, जिससे रहन-सहन में परिवर्तन आने लगा है।
8- इनका समाज में सम्मान बढ़ा है। इनके प्रति किये जाने वाले भेदभाव में कमी आई है।
9- इनमें आत्मविश्वास बढ़ने लगा है जिसके कारण ये विकासात्मक गतिविधियों से जुड़ने लगे हैं।
10- इनका ग्राम पंचायतों से लेकर संसद तक प्रतिनिधित्व होने से शासन में इनकी भागीदारी बढ़ी है। जिससे ये सांसद, विधायक, मंत्री, मुख्यमंत्री तक बनने लगे है।
उपरोक्त तथ्यों से ज्ञात होता है कि जनजातियों के लोगों में धीरे-धीरे विकास हो रहा है। जिसके परिणामस्वरूप इनकी सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक शैक्षिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में भागीदारी बढ़ रही है। वहीं वे देश की मुख्य धारा से जुड़ते जा रहे हैं, जो विकास की दिशा में शुभ संकेत हैं।
आदिवासी विकास हेतु आवश्यक सुझाव-
शिक्षा के क्षेत्र में -अशिक्षा दूर करने हेतु प्रौढ़ एवं सतत् शिक्षा व्यवस्था प्राथमिक स्तर से महाविद्यालयी स्तर की सभी प्रकार की शिक्षण सुविधाएँ, छात्रवृत्ति छात्रावास सुविधा अन्य सुविधाएँ दी जानी चाहिये।
गरीबी के क्षेत्र में -बेरोजगारी दूर करना, स्वरोजगार मूलक व्यवसाय दिलाना, शिक्षितों को शासकीय/अशासकीय नौकरी, साहूकारों और बिचौलियों के शोषण से मुक्ति दिलाना ।
कृषि व्यवसाय के क्षेत्र मे- स्थाई कृषि व्यवस्था, कृषि हेतु बीज, रासायनिक खाद, सिंचाई साधन उपलब्ध करना ऋण दिलाना।
यातायात के क्षेत्र में -सड़कों का निर्माण, यातायात के साधनों का विकास कर
स्वास्थ्य के क्षेत्र में - अस्पताल खोलना, चिकित्सकों एवं दवाईयों की व्यवस्था, प्रशिक्षित नर्स एवं दवाईयों की व्यवस्था, सामान्य रोगों की जानकारी देना।
आवास के क्षेत्र में - आवास दिलाना, आवास में बिजली, पानी, स्वच्छता और सफाई की व्यवस्था करना।
भेदभाव एवं शोषण के क्षेत्र में - भेदभाव एवं शोषण दूर करना, आत्म विश्वास पैदा करना, प्रचलित कानूनों का कठोरता से पालन कराना।
विकास के क्षेत्र में -
1- विकास कार्यों की जानकारी देना
2- समाज कल्याण के अन्तर्गत
(अ) महिलाओं एवं प्रसूति महिलाओं की जाँच करना, दवाईयाँ देना, पोषण आहार दिलाना।
(2) बालिकाओं के स्वास्थ्य का प्रशिक्षण, पौष्टिक आहार देना
(स) वृद्धों को निराश्रित पेंशन दिलाना ।
3- कल्याणकारी विकास योजनाओं से लाभान्वित कराना।
4- नेतृत्व क्षमता का विकास करना।
5- किसी भी प्रकार की नीति को थोपा नहीं जाना
6- विभिन्न जनजातियों की समस्याओं का समाधान उनकी समस्याओं के आधार पर करना ।
यदि वास्तव में हम आदिवासियों की गरीबी और अशिक्षा को दूर कर उनका चहुंमुखी विकास करना चाहते हैं तो शासन, समाज सुधारकों, समाज वैज्ञानिकों, राजनीतिज्ञों, नियोजनकर्ताओं, सामन्यजनों जनजातियों और इनके अगुवाओं को इस चुनौती भरे उत्तरदायित्व के निर्वाह करने में गहन चिन्तन सोच और विचार करने की आवश्यकता है। ये सभी मिलकर जनजाति विकास के अहम् मुद्दे पर नये आयाम सोचेगें और क्रियान्वयन करेगें ।इतना करने के पश्चात् भी यदि आदिवासियों के जीवन में विशेष सुधार नही आता है तो यह बात होगी कि जनजाति विकास के नाम पर जो लोग कार्य कर रहे हैं, (चाहे वे जनजाति अथवा गैर जनजाति के लोग हों) वे अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और लालसाओं से अधिक प्रभावित हो रहे हैं।
जनजातियों के हितार्थ-हमें इस बारे में इतना तो सुनिश्चित करना ही चाहिये कि उनके दुःखों, कठिनाईयों, आपदाओं और भावनाओं का अनुचित लाभ नहीं उठायें। संभवतः यह कदम भी किसी हद तक जनजातियों के हित में होगा।
संदर्भ ग्रंथ सूची -
1- एल्विन वैरियर एवं डॉ. घुरिये - भारत में सामाजिक परिवर्तन एवं संस्थाएं पृष्ठ 17
2- सेंसस ऑफ इण्डिया सिरोज - जनसंख्या के आंकड़े, नई दिल्ली 2001
3- डॉ. गुप्ता एवं शर्मा - भारतीय समाज और संस्कृति पृष्ठ 405 साहित्य भवन प्रकाशन, आगरा 1986
4- राजपूत उदयसिंह - पूर्व देवा (सामाजिक विज्ञान शोध पत्रिका) पृष्ठ 74-75, म.प्र. साहित्य अकादमी, उज्जैन संयुक्त अक्टूबर-मार्च 2008)
डॉ. कांतिलाल निनामा
अतिथि व्याख्याता
इतिहास
गोविन्द गुरु जनजातीय विश्वविद्यालय
बांसवाड़ा, राजस्थान
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Fine information 😄
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