शूद्र नहीं सुसंस्कृत हैं वनवासी


भारत अपनी जिन विलक्षणताओं के कारण संसार के सबसे अद्भुत देश के रूप में जाना जाता है उसमें सर्वाधिक विशेष है यहां की भगवत्ता के शिखर में समृद्ध हुई बहुआयामी संस्कृति, संस्कृति शब्द का अर्थ अंग्रेजी कल्चर से कहीं अधिक विस्तृत है। कल्चर शब्द का प्रयोग अधिकांशतः जीवन के कुछ ही पक्ष जो सभ्यता के पहलुओं को दर्शाते है। जैसे-नृत्यगीत, भाषा ,ललित कलाओं आदि पर सिमट जाते है। प्राचीन भारत में संस्कृत शब्द का व्यवहार सुधरी हुई अर्थात् परिस्कृत जीवन पद्धति के लिए किया जाता था। संस्कृति से तात्पर्य संस्कारों से उत्तरोतर जीवन में विकास होने वाली सम्पूर्ण प्रक्रिया से है। संस्कृति का परिष्कार या शुद्धि के अर्थ में प्रयोग वैदिककाल से ही होता आया है। याश्क ने शब्द की शुद्ध निष्पति के प्रसंग में सम्पूर्ण सम्पूर्वक क्र धातु का प्रयोग किया है_ "पदेभ्यः पदेन्रातरधान धारण संस्कार शाकटायनः" परिष्करण  के अर्थ में  पाणिनि का सुत्र "संस्कृत भक्षा: प्रसिद्ध ही है। परिष्कार की यह प्रक्रिया मानव जीवन में संस्कार का रूप लेकर प्रयुक्त हुई।
शूद्र से तात्पर्य है -
      मनु ने कहा "जन्मना जायते शुद्र: संस्कारादि द्विज उच्यते" आशय है प्रत्येक व्यक्ति जन्म से शूद्र है तथा उसके संस्कार उसे द्विज का रूप देते हैं। संस्कार अपने व्यापक अर्थ में जीवन मूल्यों, आदशों, कर्तव्यों तथा नैतिकता की परम्परा है। जो जीवन मूल्यों से आदर्शों से समझौता  न करें, विकृत मानसिकता से परे आदर्शों से समझौता न करे, विकृत मानसिकता से परे आदर्शों का निर्वहन कर सके वही सुसंकृत है , सुसंस्करवान है। जो प्रकृति में विकृति उत्पन्न होने से रोके और उसे सभी प्रकार का समृद्धि प्रदान करें वही संस्कृति है।
आदिवासी संस्कृति-
       संस्कृति के संरक्षित धरोहर के रूप में वनवासी आदिवासी जनजातियां इस युग में परिलक्षित होती है क्योंकि वर्तमान समय में सभी प्रकार के आयामों को देखते हुए इस बात से कोई भी इंकार नहीं कर सकता है कि जनजातियों ने बढ़ते आर्थिक परिदृश्य में भी सांस्कृतिक समृद्धि, को सेसर्वाधिक महत्व दिया है।
      आदिवासी वनवासी जनजातियां धर्म, समाज, राजनीति अथवा संस्कृति की केवल बातें कर तथाकथित बुद्धिजीवियों कीटी तरह अपनी मानसिक खुजलाहट को शब्दों से खुजलाती नहीं बल्कि जीवन को इस समग्रता से जीती है कि समग्र जीवन ही अध्यात्म हो उठता है। कला, दर्शन, धर्म, ज्ञान तथा विज्ञान चरम उद्देश्य ही होता है। जीवन को इस सहजता से जीना कि वह किसी भी अभाव के कारण बाधित ना हो और मनुष्य सदैव आनंदमय रहे। आदिवासी इस सूत्र को जीते है वे सहज रहते है।
        आर्थिक समृद्धि की प्यास इन्हें कभी रही ही नहीं तभी अत्यन्त समृद्ध वनों के स्वामी होने के बाद भी समृद्धि का दोहन किन्हीं औरों ने किया है तथा इनके सरल स्वभाव के कारण लगातार इनका शोषण हुआ जिसके फलस्वरूप आर्थिक और शैक्षिक पृष्ठभूमि में आदिवासी जनजातियों का विकास समानान्तर रूप से नहीं हुआ है। इन्होंने भी दूसरो की अपेक्षा आर्थिक पहलूओं में पिछड़ जाना स्वीकार किया परन्तु मूल्यों में, आदशों में अपने स्वाभाविक भोलेपन में पतन स्वीकार नहीं किया है, आज भी अपने निष्कपट सरल हृदय में परम्परागत् आदर्शा की लौ जलाये हुए है। आज भी आपस में समता, एकता को सहेजे हुए दूसरों को कष्ट दिए बिना सादगीपूर्ण जीवन को प्रश्रय देते है।

"साई इतनी दीजिये, जामे कुटुम्ब समाय मैं भी भूखा न रहू, साधु ना भूखा जाय"
      यह इनके लिए केवल दौहा नहीं, जीवन का स्वभाव है। 
      सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था के संदर्भ में बात की जाये तो जहां सुव्यवस्थित, सुराज्य, की परिकल्पना को रामराज्य कह कर पुकारा जाता है, वही श्रीराम जी स्वयं कहते है कि "निषादराज के राज्य की व्यवस्था वह है जिस राज्य की परिकल्पना मैं करता हूं।"
जाति पंचायत एवं आपसी सामंजस्य -
      वर्तमान में भी जनजातियों में आपसी तालमेल व न्याय व्यवस्था इतनी सुव्यवस्थित है कि आज भी आदिवासी गावों में अहम फैसले जाति पंचायत में निपटाए जाते है।आपराधिक मामले कम होते है। जबकि विश्व का इतिहास है कि जो समाज आभावों से विशेषकर आर्थिक आभाव से जूझ रहा हो  वहां अपराध, असामाजिक तत्व स्वभावतः बढ़ जाते है परंतु आदिवासी वनवासियों में ऐसा नहीं हुआ कारण यह ज्यादा महत्वपूर्ण समृद्धि सांस्कृतिक समृद्धि से परिपूर्ण है जो आभाव का भाव ही उत्पन्न नहीं होने देती, यहां आपसी सामंजस्य से व्यक्ति, परिवार व समाज की समस्याओं को सुलझा लिया जाता है।
     इन सब बातों को देखते हुए यह विशुद्ध रूप से सुसंस्कृत है फिर किस आधार पर आदिवासी वनवासियों को असभ्य अथवा शूद्र कहा जा सकता है।जातिप्रथा के आगमन के पूर्व समाज वर्णाश्रम में विभाजित था तथा सभी जनजातियाँ बिना किसी सौपानिक विभेदीकरण की एक सजातिय और आत्मनिर्भर इकाईयां थी। महर्षि वाल्मीकि,शबरी और एकलव्य आदिवासियों के सुसंकृत होने का सबसे बड़ा प्रमाण है। वर्णाश्रम व्यवस्था व्यक्ति की स्वभावगत मूल प्रकृक्तियों के आधार पर कार्य विभाजन था, न कि जन्मगत स्तरीकरण, एक ही परिवार में भिन्न-भिन्न वर्गों के लोग हो सकते थे। ऋग्वेद के देवताओं और ऋषियों में से अनेक में ब्राह्मणतत्व और क्षत्रियत्व का मिश्रन मिलता है। 
गीता में भी - चातुर्वण्यं मया सृष्ट गुणकर्म विभागशः कहा गया है, इससे भी गुण और कर्मों के अनुसार चातुर्वर्ण्य के अस्तित्व का पता चलता है।
      परिवार की तथा माता-पिता की वृत्तियों की और बालक का रूझान अधिकतर मामलों में स्वाभाविक रूप से वर्ण निर्धारण का कारण बनता है, परंतु यह व्यवस्था कभी भी कड़ी नहीं थी। यह सच है कि सामान्यतः पुत्र पिता के पथ का अनुसरण करता था किंतु ऐसा करना अनिवार्य नही था। प्रत्येक व्यक्ति को गुण और कर्म के द्वारा वर्ण का अर्जन करना होता है। वैदिक साहित्य में वर्ण परिवर्तन के कई उदाहरण दृष्टिगोचर होते है।
     स्वयं विश्वामित्र क्षत्रिय थे किंतु उन्होंने तप, ज्ञानद्वव विनम्रता के द्वारा स्वयं को ना केवल ऋषि परम्परा में सम्मलित कराया ब्रह्मर्षि की उपाधि भी प्राप्त की, वैदिक विद्वान महर्षि पतंजलि व्याकरण महाभाष्य में इसका उल्लेख किया हैं। यहां तक प्रमाण है कि विदेशी आक्रमणकारी भी भारतीय धर्म स्वीकार कर गुण-कर्मानुसार विशिष्ट वर्ण में स्थान पाते थे। ब्राह्मणों में मग और शकद्वीपी स्पष्ट ही विदेशी ब्राह्मण है। क्षत्रियो में अधिकांश घुमक्कड़ कबीले सम्मिलित हो जाते रहे है।इन वर्णों में परस्पर मेल-मिलाप, खान-पान ओर विवाह पर कोई बंधन नहीं था।
 सारांश -
     वर्णाश्रम व्यवस्था में ब्राह्मण से तात्पर्य उस व्यक्ति से है जिसे ज्ञान की प्यास हो, जो समस्त प्रकार के ज्ञान को चाहे वह धर्म, कला अथवा विज्ञान के रूप में हो, वह अपने जीवन की साधना बनाता है। जो सभी प्रकार की आत्मकेन्द्रीत व स्वार्थी प्रकृति से मुक्त हो तथा अपनी ज्ञान साधना के फल को चराचर जगत को ब्रह्ममय जानका समर्पित कर दे।
       शूद्र से तात्पर्य प्रत्येक उस व्यक्ति के लिये है जो अपने कर्तव्यों का निर्वहन नहीं करता। जो जीवन मूल्यों के संस्कारों से विहीन हो तथा जो इतना आत्मकेंद्रित हो कि प्रकृति तथा अन्य प्राणियों के जीवन मूल्यों पर स्वयं को लाभ पहुंचाता है।
   सूक्ष्मता से देखा जाए तो व्यक्ति एक जीवन में ही अपने कमों के अनुरूप कई वर्षों से गुजरता रहता है। वह एक ही पल में ब्राह्मण तथा दुसरे पल में शूद्र हो सकता है। जीवन की सर्वांगीण साधना ही अपने वर्ण को उत्तरोत्तर उच्च कर उसे साधने की है। वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुरूप तो प्रायः आदिवासी वनवासी जनजातियाँ, ब्राह्मण तथा क्षत्रिय वर्ण के स्वभाव को प्राप्त है तथा या मानवीय संस्कारों से युक्त सुसंस्कृत है।
     वर्णाश्रम व्यवस्था में समय के साथ व्यवसायों या उद्योगों की दृष्टि से जो भेद उत्पन्न हुए उन्होंने जाति का रूप ले लिया तथा इस विभाजन के मूल उद्देश्यों जाति का रूप ले लिया तथा इस विभाजन के मूल उद्देश्यों को जो व्यक्ति को अपनी प्रकृति के अनुरूप विकास देने के लिये बनाई गई थी, का उद्देश्य ही नष्ट हो गया तथा व्यवसायिक जातियां बनने के बाद मूल वर्ण संकुचित जाति मात्र बनकर रह गये तथा जन्म से वर्ण निर्धारित होने लगे। वहीं भोले और सुस्वभाव आदिवासी वनवासियों को इस कालान्तर में अपने अज्ञान ने शूद्र का तमगा दे दिया जो समस्त संस्कृति के लिये ही दुर्भाग्यपूर्ण सिद्ध हुआ।


                        डॉ. कांतिलाल निनामा         
                        अतिथि व्याख्याता 
                        गोविन्द गुरु जनजातीय विश्वविद्यालय 
                        बांसवाड़ा, राजस्थान 
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