आदिवासी विकास:चिंतन और सरोकार

  हमारा देश विशाल गांव का पूंज है | भारत एक ग्रामीण एवं  कृषि प्रधान देश है जिसकी लगभग 80% जनता आज भी गावों में निवास करती है|गांवऔर गांववासियों की इतनी बड़ी संख्या के विकास बिना हमारे विकास के दावे निश्चित रूप से खोखले ही रहेंगे | अर्थात यदि देश का संतुलित विकास  करना है तो प्रभावी ग्रामीण एवं आदिवासी विकास हमारी अहम,ओर आधारभूत आवश्यकता है 
   भारत गावों का देश है | इसकी आत्मा गावों में वास करती है | भारत विविधताओं का देश है जहां अनेक जातियों,भाषाएं, संस्कृतियां ओर परंपराएं सह_अस्तित्व में है | इन्हीं में एक महत्वपूर्ण समुदाय_आदिवासी या जनजातीय समुदाय है जो प्राचीनकाल से प्रकृति के साथ सहजीवन में रहते आए है | जनजातीय समाज की अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान,जीवनशैली,परंपराएं,ओर स्वदेशी ज्ञान प्रणालियां है लेकिन आजादी के बाद हुए विकास की दौड़ में पीछे रह गए, उपेक्षित रह गए ओर वे विकास की मुख्य धारा से कोसों दूर रह गए| इसी संदर्भ में आदिवासी विकास: चिंतन ओर सरोकार एक समकालीन और विकसित भारत के संदर्भ में आवश्यक विषय बन जाता है|
 आदिवासी विकास से तात्पर्य -
आदिवासी विकास से हमारा तात्पर्य मूलरूप से तीन प्रमुख मुद्दों से होता है जिनमें पहला है - व्याप्त गरीबी को दूर करने हेतु वहां रोजगार के अवसर पैदा करना |
दूसरा है - गावों में शिक्षा, स्वास्थ्य,पेयजल,बिजली तथा
आवास जैसी मूलभूत आवश्यकताओं को विकसित करना | तीसरा है - देश के शासन में ग्रामीणों ओर आदिवासियों की भागीदारी सुनिश्चित करने हेतु उनमें 
चेतना और जागरूकता का संचार करना |
  इस प्रकार की व्यवस्था से ही आदिवासी लोगों का सामाजिक,आर्थिक ओर सांस्कृतिक विकास होना संभव है| 
वर्तमान में चिंतन की दृष्टि से मुख्य बिंदु - 
हमारे देश में आर्थिक नियोजन युग का सूत्रपात हुआ
जिसके माध्यम से विभिन्न विकास कार्यक्रमों को लागू 
किया जा रहा है| विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में आदिवासी विकास के उद्देश्यों को प्राथमिकता दी जाती रही है| इसके बावजूद भी आदिवासी क्षेत्र में विशेष प्रगति नहीं हुई| दो - तिहाई से अधिक जनसंख्या का 
गरीबी की रेखा से नीचे होने से स्पष्ट है कि आदिवासी विकास हेतु एक दीर्घकालीन योजना तथा इसके प्रभावपूर्ण क्रियान्वयन का होना आवश्यक है|
अशिक्षा, अज्ञानता,धार्मिक अन्धविश्वास,डायन प्रथा, मोताना प्रथा, मद्यपान तथा रूढ़िवादी सामाजिक प्रथाओं
में डूबे देश के आदिवासियों की स्थिति बहुती भयावह है
जो कि भोजन,कपड़े,और मकान जैसी अपनी प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में भी असमर्थ है 
(1.) कर्षि भूमि,विस्थापन और वन अधिकार - 
भारतीय आदिवासियों का जीवन प्रकृति से जुड़ा हुआ है|
अनेक सामाजिक,आर्थिक एवं प्रौद्योगिकी परिवर्तन के 
बावजूद इनके पास अमूल्य प्राकृतिक धरोहर सुरक्षित है|
इन आदिवासियों ओर वनों के बीच एक अटूट रिश्ता है 
अर्थात आदिवासियों के लिए वन उनके जीवन का आधार है| लेकिन उद्योकिकरण,विकास योजनाओं ओर खनन परियोजनाओं के नाम पर उन्हें विस्थापित किया जा रहा है| वन अधिकार अधिनियम से भी उन्हें पूरी तरह से लाभ नहीं मिल पा रहा है| दिन ब दिन कृषि भूमि के कम होने से जनजातीय समुदाय में खाद्यान्न संकट भी
उत्पन्न हो रहा है| 
(2.) शिक्षा,साक्षरता ओर सशक्तिकरण - 
समाज ओर शिक्षा का  एक- दूसरे के साथ घनिष्ठ संबंध है| एक की प्रगति पर दूसरे की प्रगति निर्भर है| नियोजित विकास की अवधि में जनजातीय एवं गैर जनजातीय लोगों के बीच शिक्षा के क्षेत्र में मौजूद विषमताओं को अनेक योजनाओं द्वारा समाप्त किया जाता रहा है| परन्तु
वर्तमान में जनजाति क्षेत्रों में शिक्षा की पहुंच आज भी सीमित है| स्कूलों की कमी,अध्यापकों की कमी, पहाड़ी क्षेत्र,सड़कों का आभाव,भाषा की असमानता ओर सांस्कृतिक दूरी के कारण जनजातीय क्षेत्रों में शिक्षा एक बड़ी चुनौती है| हालांकि कई योजनाएं चल रही है, लेकिन जनजातीय लोगों की उदासीनता,शिक्षा के प्रति जागरूकता में कमी के कारण प्रभावशाली गुणवत्ता शिक्षा का अभाव बना हुआ है| 
(3.) आदिवासियों की परम्परागत चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सेवाएं - 
'सर्वे जनों सूखानि भवन्तु ' यह कहावत स्पष्ट करती है कि प्राचीनकाल से ही स्वास्थ्य को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था| एक स्वस्थ नागरिक ही स्वस्थ राष्ट का निर्माण करता है| देश की उत्पादन क्षमता व शक्ति मापदंड स्वास्थ्य होता है| स्वस्थ जनता ही विकास का आधार है| अतः स्वस्थ जनसंख्या आर्थिक विकास का साधन व साध्य है|     स्वतंत्रता प्राप्ति से ही देश के ग्रामीण व आदिवासी क्षेत्रों में स्वास्थ्य की समुचित सुविधाएं उपलब्ध करवाने हेतु अनेक प्रयास किए गए है| आज देश में अत्यधिक स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार होने के उपरांत भी बीमारियां बढ़ रही है| देश के लिए स्वास्थ्य योजनाएं बनाने वाले के लिए विभिन्न बीमारियां एक चुनौती बनी हुई है|देशवासियों को स्वस्थ रखना केवल इस बात पर निर्भर नहीं करता कि डाक्टरों एवं अस्पतालों की संख्या में वृद्धि  कर दी जाए बल्कि स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता बढ़ानी होगी| 
     आदिवासी लोग न केवल सामान्य प्रकृति की वरन जानलेवा बीमारियों जैसे - तपेदिक, दमा,मलेरिया, कैंसर,एड्स व ह्रदय रोग आदि से भी ग्रसित होने लगे है जिनका ईलाज ये आज भी परम्परागत तरीके से करते है| आदिवासी परिवारों में रोगों के उपचार हेतु परंपरागत 
व धार्मिक चिकित्सा जिसमें तंत्र,मंत्र, झाड़- फूंक,टोना - टोटका, पूजा - पाठ एवं जड़ी - बूटियों का प्रयोग बहुतायत में प्रचलित है| 
  स्वास्थ्य सेवाओं की अनुपलब्धता और कुपोषण आदिवासी समाज की बड़ी समस्या है | खासकर महिलाओं ओर बच्चों में कुपोषण की दर काफी अधिक है | पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियां भी आधुनिक स्वास्थ्य व्यवस्थाओं से समन्वित नहीं हो पाई है| इसके लिए स्वास्थ्य कर्मियों की अनुपलब्धता,दवाओं का अभाव, आधुनिक चिकित्सा के प्रति अविश्वास,स्वास्थ्यकर्मियों का असंवेदनशील व्यवहार,सांस्कृतिक बाधाएं एवं स्थानीय धार्मिक एवं परंपरागत चिकित्सकों का प्रभुत्व प्रमुख कारण है|
(4.) सांस्कृतिक धरोहर, संस्कृति और अस्मिता का संकट- 
आदिवासी हमारी प्राचीन संस्कृति के संवाहक है। नैसर्गिक वातावरण और एकांत में रहने के कारण समाज एवं राष्ट्र की मुख्यधारा से दूर रह गए। यही नहीं रूढ़िगत परंपराओं, अन्धविश्वास एवं जड़ता के कारण पिछड़ गए।वर्तमान में वैश्विकरण और भूमंडलीकरण के दौर में आदिवासी संस्कृति संक्रमण के दौर से गुजर रही है विकास योजनाओं के नाम पर विस्थापन की समस्याएं दिन ब दिन बढ़ती जा रही है| मुख्य धारा का विकास मॉडल अक्सर आदिवासियों की भाषा,पहनावा,परंपरा और जीवनशैली को पिछड़ता है, जिससे उनकी सांस्कृतिक पहचान नष्ट हो रही है| स्वयं आदिवासी युवा वर्ग आधुनिकता की दौड़ में अपनी संस्कृति और परंपराओं को भूलते जा रहे है| 
आदिवासी विकास के सरोकार और समाधान -
वर्तमान में वैश्वीकरण के दौर में पूरा विश्व एक गांव की शक्ल में बदल गया है| विकसित भारत के सपने को साकार करना है तो ग्रामीण ओर आदिवासी विकास हमारी पहली प्राथमिकता है| जब तक ग्रामीण आदिवासी समुदाय का विकास और उन्हें मुख्यधारा 
नहीं जोड़ा जाता तब तक विकसित भारत का सपना अधूरा रहेगा | इस सपने को पूरा करने के लिए आदिवासी ग्रामीण विकास के साथ - साथ उनकी संस्कृति और आदिम धरोहर का स्वरक्षण एवं विकास नितांत जरूरी है |
ग्रामीण आदिवासी समावेशी विकास मॉडल की आवश्यकता - 
जनजातीय क्षेत्रों में विकास योजनाएं एवं नीतियां बनाते समय आदिवासी ग्रामीण समाज की जरूरतों,उनकी प्राथमिकताओं ओर उनकी पारंपरिक समझ को ध्यान में रखना आवश्यक है | उनके लिए विशेष आवश्यकता वाले विकास कार्यक्रमों वाले सिद्धांत को अपनाना चाहिए | उनकी संस्कृति का संरक्षण करते हुए विकास कार्यक्रमों को लागू करना चाहिए 
स्थानीय नेतृत्व को बढ़ावा- 
आदिवासी क्षेत्रों में ग्राम सभा और पंचायतों की भूमिका मजबूत की जाए ताकि निर्णय स्थानीय स्तर पर लिए जा सकें।

शिक्षा में स्थानीय भाषा और संस्कृति का समावेश- 

शिक्षा व्यवस्था में आदिवासी भाषाओं और संस्कृति को शामिल करने से न केवल उनकी पहचान संरक्षित होगी, बल्कि शिक्षा का स्तर भी बेहतर होगा।

संवेदनशील प्रशासन और निगरानी तंत्र- 

सरकारी योजनाओं की निगरानी के लिए जनजातीय प्रतिनिधियों को शामिल किया जाना चाहिए ताकि योजनाएं केवल कागजों तक सीमित न रहें।

निष्कर्ष- 

आदिवासी विकास कोई दान या खैरात नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय का मामला है। यदि भारत को सही मायनों में विकसित राष्ट्र बनना है, तो उसे अपने जनजातीय समाज को सशक्त और सम्मानित बनाना होगा। आदिवासी समाज केवल 'विकास के लाभार्थी' नहीं, बल्कि 'विकास के साझेदार' होने चाहिए। इसलिए आवश्यक है कि विकास की हर नीति में संवेदनशीलता, भागीदारी और सम्मान का समावेश हो। 



                                       डॉ.कान्तिलाल निनामा                                               अतिथि व्याख्याता।       
                        गोविंद गुरु जनजातीय विश्वविद्यालय                                          बांसवाड़ा (राज.)
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टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही अच्छा सर आदिवासी समाज के बारे में अपने विस्तृत जानकारी बताइए आदिवासी समाज में होने वाली समस्याओं के बारे में आपने हमें अवगत कराया है

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  2. आदिवासी भील समाज की संस्कृति, रीतिरिवाज, रहन -सहन, बोली, आदि के बारे में अच्छी जानकारी दी ऐसे ही शोध करके आदिवासी समाज की जानकारी दुनिया को अवगत कराये ताकि दूसरे लोग भी जान सके आदिवासी भील समाज की पहचान विश्व स्तर पर प्रकाशित हो सके 🙏🙏

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  3. आदिवासी समाज की कला, संस्कृति इतिहास और विरासत पर मौलिक आलेख सराहनीय है sirji

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